क़ब्रे अनवर की ज़ियारत
क़ब्रे अनवर की ज़ियारत
हुज़ूरे अक़दस के रोज़ा-ए-मुक़द्दसा की ज़ियारत सुन्नते मुअक्कदा क़रीब (वाजिब) यानी ज़रूरी है। मुसलमानों पर नबी ﷺ के हुक़ूक में से एक हक़ ये भी है कि हुज़ूरे अक़दस के रोज़ा-ए-मुक़द्दसा की ज़ियारत की जाए। मदीना मुनव्वरा में सरवरे दो आलम सल्लल्लाहु त’आ़ला अलैहि व सल्लम की आख़िरी आराम गाह है और यही मस्जिदे नबवी है, यही वोह मक़ाम है जहाँ आप हिजरत के बाद जलवा अफ़रोज़ हुए और तादमे आख़िर रहे। इसलिए अल्लाह त’आला के मुक़द्दस घर ख़ाना ए काबा में हज या उमरा की सआदत हासिल करने के बाद यहाँ की हाज़िरी दीनो दुनिया की फ़लाह व सआदत का मुजिब है। और क़ियामत के रोज़ रसूल ﷺ की शफाअत का ज़रीआ बनेगी। इसलिए क़ब्रे अनवर की ज़ियारत बहुत ज़रूरी है। ज़ियारत के बग़ैर वापस लौट आना सख़्त महरूमी और बद बख़्ती है। क़ुरआने पाक में बारगाहे रिसालत की हाज़िरी को गुनाहों की बख़्शिश व मग़फिरत का ज़रीआ क़रार दिया गया है।
क़ब्रे अनवर की ज़ियारत हर मुसलमान पर हक़ है
हदीस : (तर्जुमा) हज़रत अनस रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि रसूल ﷺ हिजरत कर के जब मक्का शरीफ से तशरीफ लाये तो वहाँ की हर चीज़ पर अंधेरा छा गया और जब मदीना तय्यबा पहुँचे तो वहाँ की हर चीज़ रौशन हो गई हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मदीना मेरा घर है और उसी में मेरी क़ब्र हो गई और हर मुसलमान पर हक़ है कि उसकी ज़ियारत करे। (सीरते मुस्तफ़ा, अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी )
रोज़ा-ए-मुक़द्दसा की ज़ियारत का हुक़्म
अल्लाह त’आला ने क़ुरआन मजीद में इर्शाद फरमाया किः- (तर्जुमा) “और अगर ये लोग जिस वक़्त कि अपनी जानों पर ज़ुल्म करते हैं आप के पास आ जाते और ख़ुदा से बख़्शिश मांगते और रसूल ﷺ उनके लिए बख़्शिश की दुआ फरमाते, तो ये लोग ख़ुदा को बहुत ज़्यादा बख़्शने वाला मेहरबान पाते”।
इस आयत में गुनाहगारों के गुनाह की बख्शिश के लिए अर्हमुराहिमीन ने तीन शर्तें लगाई हैं। पहले दरबारे रसूल ﷺ में हाज़िरी, दूसरे इस्तिग़फार, तीसरा रसूल ﷺ की दुआ ए मग़फिरत। येह हुक्म हुज़ूर की ज़ाहिरी दुनियावी ज़िंदगी ही तक महदूद नहीं।
बल्कि रोज़ा-ए- अक़दस में हाज़िरी भी यक़ीनन दरबारे रसूल ﷺ ही में हाज़िरी है। इसीलिए उलमा-ए-किराम ने खुलकर फ़रमा दिया है कि हुज़ूर के दरबार का फ़ैज़ आपकी वफ़ाते अक़दस से ख़त्म नहीं हुआ है। इसलिए जो गुनहगार क़ब्रे अनवर के पास हाज़िर हो जाए और वहाँ ख़ुदा से बख़्शिश की दुआ करे।
चूँकि हुज़ूर तो अपनी क़ब्रे अनवर में अपनी उम्मत के लिए इस्तिग़फार फ़रमाते ही रहते हैं इसलिए उस गुनहगार के लिए मग़फिरत की तीनों शर्तें पा ली गईं इसलिए इन्शाअल्लाह त’आला उसकी ज़रूर मग़फिरत हो जाएगी। यही वजह है कि चारों मज़ाहिब के उलमा-ए-किराम ने हज व ज़ियारत के बारे में लिखी हुई किताबों में यह तहरीर फ़रमाया है कि जो शख्स भी रोज़ा-ए-मुनव्वरा पर हाज़िरी दे उसके लिए मुस्तहब है कि इस आयत को पढ़े। फिर ख़ुदा से अपनी बख़्शिश की दुआ मांगे।
मस्जिदे नबवी में दाख़िल के आदाब :
मस्जिदे नबवी में दाख़िल होते वक़्त पहला दाहिना क़दम रखें और मस्जिदे नबवी में दाख़िल होते वक्त यह दुआ पढ़े: (तर्जुमा) ऐ अल्लाह ! दुरूद भेज हमारे सरदार मुहम्मद मुस्तफा स़ल्लल्लाहु त’आला अलैहि वसल्लम और उनकी आल पर ऐ अल्लाह ! मेरे गुनाहों को बख़्श दे और मेरे लिए अपनी रहमत के दरवाज़े खोल दे ऐ अल्लाह आज के मुझे तेरी तरफ मुतवज्जह होने वालो में सब से ज़्यादा मुतवज्जह बना ले। तेरा क़ुर्ब हासिल करने वालो में सब से ज़्यादा क़रीब बना ले और ज़्यादा फाइज़ुलमराम कर उन्ही से जिन्हो ने तुझ से दुआ की और अपनी मुरादें मांगी“ (सुन्नी फ़ज़ाइले आमाल, पेज 379)
गोया मेरी ही ज़ाहिरी ज़ियारत की
हदीस : (तर्जुमा) : हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि नबी ﷺ ने फ़रमाया कि जिस ने मेरी हयाते ज़ाहिरी के बाद हज किया और मेरी क़ब्र की ज़ियारत को आया तो गोया उसने मेरी ज़ाहिरी हयात में मेरी ज़ियारत की (बैहक़ी शो’बुल ईमान)
मेरी शिफाअत ज़रूरी हो गई
हदीस : (तर्जुमा) : हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि नबी ﷺ ने फ़रमाया कि जिस शख़्स ने मेरी क़ब्र की ज़ियारत की उसके लिए मेरी शिफाअत ज़रूरी हो गई। (दारे कुतनी)
वोह क़ियामत में मेरे पड़ोसी
हदीस : (तर्जुमा) आले ख़िताब के एक आदमी की रिवायत है कि रसूल ﷺ ने फ़रमाया कि जो शख़्स इरादा कर के मेरी ज़ियारत करे वोह क़ियामत में मेरे पड़ोस में होगा और जो शख़्स मदीना में क़ियाम करे और वहाँ की तंगी पर सब्र करे मैं उसके लिए क़ियामत में गवाह और सिफारिशी हूँगा। और जो हरमे मक्का या हरमे मदीना में मर जाए वोह क़ियामत में अमन वालो में उठेगा। (बैहक़ी शो’बुल ईमान)
दो मबरूर हज्जों का सवाब
हदीस 5: (तर्जुमा) हज़रत इब्ने अब्बास रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि जो शख़्स हज्ज के लिए मक्का मुकर्रमा जाए उसके बाद मेरी मस्जिद में आए उस के लिए दो मबरूर हज्जों का सवाब होगा। (अल इतहाफ़)
क़ब्रे अनवर के पास दरूद पढ़ना
हज़रत अबू हुरैरा रदीअल्लाहु अन्हु से रिवायात है कि जो शख़्स भी मेरी क़ब्र के पास आ कर मुझ पर दुरूद और सलाम पेश करे तो अल्लाह त’आला मेरी रूह तक पहुँचा देता है उसके सलाम का जवाब देता हूँ। (सुन्नी फ़ज़ाइले आमाल, पेज 377)
क़ब्रे अनवर के पास से दरूद का जवाब
हज़रत अबू हुरैरा रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु त’आला अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि जो शख़्स मेरी क़ब्र के पास खड़ा हो कर मुझ पर दुरूद पढ़ता है मैं उसको ख़ुद सुनता हूँ और जो किसी और जगह दुरूद पढ़ता है तो उसकी दुनिया और आख़िरत की ज़रूरतें पूरी की जाती हैं और मैं क़ियामत के दिन उसका गवाह और उस की सिफारिशी हूँगा।“ (बैहक़ी)
रहमत का नुज़ूल और हाजत पूरी होना
इब्ने अबी फ़दीस का बयान है कि जो शख़्स हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु त’आला अलैहि वसल्लम की क़ब्रे मुबारक के पास खड़े हो कर यह आयत पढ़े। 3) उसके बाद 70 मर्तबा सल्लल्लाहु अलैका या मुहम्मद कहे तो एक फिरिश्ता कहता है कि ऐ शख्स अल्लाह जल्ल शानोहु तुझ पर रहमत नाज़िल करता है और उसकी हर हाजत पूरी कर दी जाती है“ (बैहकी)
इसीलिए सहाबा ए किराम के मुक़द्दस ज़माने से लेकर आज तक तमाम दुनिया के मुसलमान क़ब्रे मुनव्वर की ज़ियारत करते और आपकी मुक़द्दस बारगाह में वसीला और मदद करते रहे हैं इन्शाअल्लाह त’आला क़ियामत तक यह मुबारक सिलसिला जारी रहेगा।
एक देहाती का वाक़िआ
हज़रते अमीरुल मोमिनीन अली मुर्तजा रदीअल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि वफ़ाते अक़दस के तीन दिन बाद एक देहाती मुसलमान आया। क़ब्रे अनवर पर गिर कर लिपट गया। फिर कुछ मिट्टी अपने सर पर डाल कर यूँ अर्ज़ करने लगा कि ’या रसूल ﷺ आपने जो कुछ फ़रमाया हम उस पर ईमान लाए हैं। अल्लाह त’आला ने आप पर क़ुरआन नाज़िल फरमाया जिसमें उसने इरशाद फ़रमाया कि (तर्जुमा :अगर ये लोग जिस वक़्त कि अपनी जानों पर ज़ुल्म करते हैं आप के पास आ जाते और ख़ुदा से बख़्शिश मांगते और रसूल ﷺ उनके लिए बख़्शिश की दुआ फरमाते, तो ये लोग ख़ुदा को बहुत ज़्यादा बख़्शने वाला मेहरबान पाते।) तो या रसूल ﷺ मैंने अपनी जान पर (गुनाह करके) ज़ुल्म किया है इसलिए मैं आपके पास आया हूं ताकि आप मेरे हक़ में मग़फिरत की दुआ फरमाएँ। देहाती की इस फरियाद के जवाब में क़ब्रे अनवर से आवाज़ आई कि ऐ देहाती तू बख़्श दिया गया“ (वफ़ा उल वफ़ा, जिल्द-2, सफ़ा 412)
हुज़ूर अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी अलैहिर्रहमह सीरते मुस्तफ़ा किताब में लिखते है
ज़रूरी तंबीहः नाज़िरीने किराम येह सुन कर हैरान होंगे कि मैंने अपनी आँखों से देखा है कि गुंबदे ख़ज़रा के अन्दर मवाजले अक़दस और उसके क़रीब मस्जिदे नबवी की दीवारों पर क़ब्रे मुनव्वरा की ज़ियारत की फज़ीलतों के बारे में जो हदीसें कुन्दा की हुई थीं नज्दी हुकूमत ने इन हदीसों पर मसाला लगवाकर उनको मिटाने की कोशिश की है। अगरचे अब भी उसके कुछ हुरूफ़ ज़ाहिर हैं। इस तरह मस्जिदे नबवी के गुंबदों के अन्दरूनी हिस्से में क़सीद-ए-बुर्दा शरीफ के जिन अशआर में तवस्सुल और इस्तिग़ासा के मज़ामीन थे, उन सबको मिटा दिया गया है। बाकी अशआर बाकी गुंबद पर उस वक्त तक बाकी थे। मैंने जो कुछ देखा है वह जुलाई 1959 ईसवी का वाक़िआ है। इसके बाद वहाँ क्या तब्दीली हुई? उसका हाल नए हुज्जाजे किराम से पूछना चाहिए। (सीरते मुस्तफ़ा, पेज 534 हिदी)