मुहब्बते रसूल ﷺ
मुहब्बते रसूल का शरई हुक्म
ईमान क़बूल करने के बाद हर मोमिन पर हुजूरे अक़दस का सबसे ज्यादा हक़ आप से मुहब्बत करना है क्योंकि मुहब्बते रसूल ही ईमान जान है बाकी ईमानी खसलते आज़ा के मानिंद है जबकि कोई भी ज़ाहिरी अमल इमान का हिस्सा नहीं इसी लिए अल्लाह ﷻ ने अपने बंदों को आप से सबसे ज्यादा मुहब्बत करने का हुक्म दिया है और नेक अमल तो ईमान के बाद करने का हुक़्म हुआ है। चुनांचे इरशादे रब्बानी है:
(तर्जमाः “तुम फ़रमाओ अगर तुम्हारे बाप तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी औरतें और तुम्हारा कुंबा, तुम्हारी कमाई के माल और वह सौदा जिस के नुकसान का तुम्हें डर है और तुम्हारे पसंद का मकान अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में लड़ने से ज़्यादा प्यारी हों तो रास्ता देखो यहाँ तक कि अल्लाह अपना हुक्म लाए और अल्लाह फासिकों को राह नहीं देता।” ( कंजूल ईमान, सूरह तौबा, आयतः 24)
इस आयते करीमा से वाज़ेह है कि एक मोमिन पर यह फ़र्ज़ है कि वह माँ बाप, भाई बहन, आल व औलाद, कुंबा कबीला, माल व दौलत ग़र्ज़ कि सारी चीज़ों से ज़्यादा आप से मुहब्वत करे यानी किसी दूसरी चीज़ की मुहब्बत अल्लाह व रसूल जल्ल जलालहु व की मुहब्बत पर ग़ालिब न आने पाए, गोया मुहब्बते रसूल ही हासिले ज़िंदगी है यह न हो तो ज़िंदगी का लम्हा लम्हा बेकैफ, सारे मशाग़िल बेसूद और ताआत व इबादात मरदूद, इसी लिए खुद नवीए करीम ने भी अपने मानने वालों को अपनी मुहब्बत की तरगीव दी है। चुनांचे इरशाद हैः
तर्जमाः “तुम में से कोई शख़्स उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि मैं उस के वालिदैन और औलाद और तमाम लोगों से ज़्यादा उसके नज़दीक महबूब न हो जाऊँ।” (बुख़ारी, जिल्द अव्वल, सफाः 7)
यानी ईमान की मज़बूती और अकमल के लिए तमाम चीजों और तमाम मख़लूक़ से ज्यादा अल्लाह के रसूल यानी हमारे नबी से मुहब्बत करने का हुक़्म है।
मुहब्बते रसूल का अक़्ली दलील
ख़्याल रहे हुजूरे अकदस से मुहब्बत का शरई हुक्म तो अपनी जगह पर मुसल्लम है ही इसके अलावा अक़्लन भी हुजू़र मुहब्बत किए जाने का सब से ज़्यादा हक रखते हैं। चुनांचे आप गौर करें तो मालूम होगा मुहब्बत के तीन असबाब होते हैं “हुस्न व जमाल” “जूद व नवाल” “जाह व जलाल” जिस शख़्स के अन्दर इन असबाव में से कोई एक ही सबव मौजूद हो तो लोग उस से मुहब्बत करते हैं। अब आप अगर गौर करें तो हुजू़रे अकदस ख़ूबियों की जामेअ है लिहाज़ा आप की ज़ाते गिरामी इन तीनों ही सब से ज़्यादा मुहब्बत किए जाने के लाइक हैं। नीचे चंद रिवायतें लिखी जाती हैं जिन से साबित होगा कि हुजूरे अक़दसते की मुक़द्दस जाते गिरामी के अन्दर असबाबे मुहब्बत अपनी पूरी जलवा सामानियों के साथ मौजूद हैं।
हज़रत अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त’आला अन्हु फ़रमाते हैं: तर्जमाः मैं ने रसूलुल्लाह से ज्यादा हसीन व खूबसूरत किसी को न देखा।
महब्बत की हक़ीक़त
महब्बत दिली कैफ़ियत का नाम है। महब्बत नाम है दिलों के जुड़ाव का। महब्बत कहते हैं किसी ज़ात की ख़ूबियों की वजह से उसकी तरफ़ दिल के झुक जाने को। महब्बत करने वाला अपने महबूब (जिससे वोह मुहब्बत करता है) के दिली तौर पर क़रीब होता है और ज़ाहिरी तौर पर भी क़रीब रहना चाहता है, वहीं नफ़रत दूरी का सबब है। मुहिब महबूब को अपना दिल दे देता है नतीजतन उसके दिल पर महबूब का इख़्तियार होता है और वोह अपने महबूब के ताबे होकर उसके कहे पर अमल करता है। इंसान को जिस चीज़ से महब्बत हो जाए उसकी सारी तवज्जोह, तमाम कोशिशें और सारी मेहनत उस चीज़ को पाने के लिए होतीं हैं। अगर येह महब्बत दुनिया से हो जाये तो सारी कोशिशें दुनिया और दुनिया की फ़ानी चीज़ों को हासिल करने की तरफ़ होंगी और अगर यही महब्बत दीन से हो जाए तो उसकी सारी कोशिशें आख़िरत और उख़रवी ने’मतों को हासिल करने के लिए होंगी। अगर महबूब हक़ वाला (अम्बिया, औलिया, औलमा में से) है तो अपने चाहने वाले को अल्लाह की तरफ़ ले जाता है लेकिन अगर महबूब बातिल है तो अपने चाहने वाले को शैतान की तरफ़ ले जाता है। क़ुरआन-ओ-हदीस में जहां भी अल्लाह के लिए महब्बत करने का हुक्म है वहां सिर्फ़ हक़ वालों की तरफ़ इशारा है जैसे अम्बिया, औलिया, शोहदा, सालेहीन, मोमिनीन वग़ैरहुम और जहां अल्लाह के लिए नफ़रत करने (बुग्ज़ रखने) का हुक़्म हुआ वहां सिर्फ़ बातिल और बातिल वालों की तरफ़ इशारा है जैसे नफ़्स ओ शैतान, दुनिया, कुफ़्फ़ार, मुनाफ़िकीन, मुर्तद्दीन और तमाम बदमज़हब। वल्लाहु अ’अलम। (मुसन्निफ़)
महब्बत की अहमियत
अल्लाह के लिए महब्बत, ईमानी खसलत का नाम है। हुक़ूकुल इबाद (बंदों के हक़) की अदाएगी के लिए आपसी महब्बत का होना बहुत ही ज़रूरी है। इसके बग़ैर दूसरे मुसलमानों का हक़ अदा करने का जो हुक्म है उस पर अमल नामुमकिन है। जब कोई किसी से महब्बत करता है तो उसे उसके अंदर खूबियां नज़र आतीं हैं , उसकी ज़रूरत को अपनी ज़रूरत समझता है, उसके लिए रहम के जज़्बात रखता है, उसके लिए वही पसंद करता है जो अपने लिए पसंद करता है। येह तमाम खसलतें ईमानी खसलतें है। इस महब्बत के रहते एक मुसलमान के दिल में दुसरे मुसलमान के लिए हसद, कीना, नफ़रत जैसी बुरी खस्लतें जमा नहीं होंगी, उसकी ज़बान मुसलमान भाई की ग़ीबत, चुग़ली, उसे गाली देने और उसके खिलाफ़ झूठ से महफूज़ रहेगी और उसका हाथ क़त्लो गारत, ख़यानत, लड़ाई झगड़ा जैसे कामों से बचा रहेगा।
मुहब्बत के 2 अकसाम
1. हक़ से मुहब्बत 2 बातिल से मुहब्बत
हक़ से मुहब्बत – अल्लाह की रज़ा के लिए हक़ीक़ी अल्लाह से , अल्लाह के रसूलों से, तमाम अम्बिया व औलिया व मोमिनीन व दीनदारो से मुहब्बत करना। ये मुहब्बत आख़िरत तलबी के लिए खास है अगर्चे दुनियावी जरूरियात भी शामिल हो।
2. बातिल से मुहब्बत – यानी नाफ़सानी मजे के लिए दुनिया, शोहरत, दौलत, ग़ैर महरम औरत का हुसुल के लिए शरीयत के दायरे से हटकर किसी से मुहब्बत करना ये नाज़ायज़ फेल (काम) है। ऐसे लोगों के दिल हक़ वालों की मुहब्बत से महरूम होता है। यही लोग दुनियादार है जिसमे से बहुत सारे काफ़िर व मुशरिक हुए, बहुत मुनाफ़िक़ हुए, बहुत फ़ासिक़ व फ़ाज़ीर हुए।
मूहिब के 2 अकसाम
जानना और मानना चाहिए कि मुहब्बत की 2 किस्में है 1. रश्मि मूहिब (जबानी मुहब्बत का दावेदार) और 2. हक़ीक़ी मूहिब (दिल से मुहब्बत करने वाला)
1. रश्मि मूहिब (जबानी मुहब्बत का दावेदार) : जबानी मुहब्बत सिर्फ झूठा दावा है जो दलील पेश किए बग़ैर हर काफिर, मुर्तद, मुनाफ़िक़ व फ़ासिक़ फ़ाज़ीर और सुल्हकुल्ली के जबान से ज़ाहिर होता है मगर उसके दिल मे बातिल की मुहब्बत छुपी होती है ऐसो लोगों के दिलों में तो खालिस्तन दुनिया की मुहब्बत और नाफ़सानी ख़्वाहिशात का ग़लबा होता है। इस दौर में ऐसे लोगो को मुआशरे में ऐनुल यकीन के साथ देखा जा सकता है जो काफ़ी तादाद में मौजूद है जिसकी तमाम वक़्त, हिम्मत, ताक़त, दौलत, जान व माल सिर्फ बातिल (नफ़्स, शैतान व दुनिया) के तलब में खर्च होते है।
2. हक़ीक़ी मुहब्बत (दिल से मुहब्बत करने वाला) – यानी हक़ वालों से दिली मुहब्बत। जानना चाहिए कि मुहब्बत दो दिलो के बीच एक कैफ़ियत का नाम है जिसका ताअल्लुक जबान से नहीं बल्कि सिर्फ दिल से है हक़ीक़ी मुहब्बत दिल से किया जाता है जिसका अलामत यह है कि तमाम आज़ा महबूब (रसूल ﷺ) की तरफ मुतवज्जो हो और मूहिब कि तमाम कोशिशे, वक़्त, हिम्मत, इताअत, सुन्नत, क़ुव्वत, जान, माल व दौलत सब रसूल ﷺ (महबूब) के फ़रमान के मुताबिक उसी के रज़ा के लिए के ख़र्च होना चाहिए।
हक़ीक़ी मुहब्बत की अलामत यह है कि जो शख़्स किसी से मुहब्बत करता है वह अपने महबूब का मुतीअ व फरमां बरदार होता है लिहाज़ा जो शख़्स मुहब्बते रसूल का दावा करे उस पर हुजूरे अकदस का यह हक बनता है कि वह हुजू़र की मुकम्मल पैरवी करे। यानी आप की सुन्नतों पर अमल करे, आप की बात और सीरत की पैरवी करे। जिन चीज़ों के करने से हुजूर ने मना फरमा दिया है उनके करने से बचे और जिन कामों के करने का हुक्म दिया है उन पर अमल करने में पहल करे और तंगदस्ती व खुशहाली और खुशी व ग़मी ग़र्ज़ कि हर हाल में हुजू़रे अक़दस की ही सीरते तय्यबा को अपनाए।
किसी शायर ने कहा हैः
अगर तेरी मुहब्बत सच्ची होती तो ज़रूर इताअत (पैरवी) करता क्यों कि मूहिब अपने महबूब का फ़रमाबरदार होता है।