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Iman Ki Haqiqat I ईमान की हक़ीक़त

ईमान की हक़ीक़त

ईमान की हक़ीक़त

ईमान इंसानी दिल के अंदर एक खस्लत का नाम है जिसके बाइस इंसान इस क़ाबिल बनता है कि उससे अल्लाह राज़ी हो जाता है, वो अश्रफ़ुल मख़लूक़ात कहलाता है। रहम दिली, अक़्ले सलीम, इल्मे नाफ़े और अमले सालेह के हुसूल , हुक़ूकुल्लाह और हुक़ूकुल इबाद की अदाएगी में खुलूस, कमाल और कबूलियत इसी ईमान के सबब हो सकते हैं। दरअस्ल ईमान वालों के साथ अल्लाह की मदद, उसकी रहमत और क़ुव्वत होती है। ईमानी खस्लतें शैतानी और नफ़्सानी खस्लतों के बर अक्स है यानी जिस इंसान के अंदर ईमानी खस्लतें जिस क़दर हों उससे शैतानी और नफ़्सानी खस्लतें उसी क़दर दूर होंगी। अगर इंसान की गफ़लत या गलती की वजह से शैतानी और नफ़्सानी खस्लतें उसमें पैदा होने लगे तो उसमें ईमान की शाख़ें ख़ुद ब ख़ुद मुरझाने लगेंगी और नतीजा येह होगा कि ईमान का दरख़्त या तो कमज़ोर पड़ जाएगा या बिल्कुल ख़त्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा किसी के साथ तब होगा जब वोह इंसान अपने वजूद को भूल जाए, आख़िरत को तरजीह देना छोड़ दे, अल्लाह और उसके रसूल के फ़रमान से मुँह मोड़ ले, ख़ालिक़ से डरने की बजाए मख़लूक़ से डरे, अल्लाह और उसके रसूल से सबसे बढ़कर मुहब्बत करने की बजाए दुनिया और दुनियवी चीज़ों से ज़्यादा मुहब्बत करे। ऐसे हालात में अल्लाह की नाराज़गी के सबब अल्लाह के हुक़्म से इंसान के अंदर शैतानी और नफ़्सानी खस्लतों का ग़लबा वाके होगा नतीजतन इंसान नाक़िसुल ईमान या बेईमान बन कर रह जाएगा जिसकी अलामत उसका अमल ही होगा यानी ऐसा अमल जो शरीयत व सुन्नत के खिलाफ़ उससे सादिर होगा।
वल्लाहु आलम

ईमान मानने का नाम है

ईमान मानने का नाम है यानी हक़ को हक़ और बातिल को बातिल मानने का नाम ईमान है जिसका ताअल्लुक़ दिल से है । हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु त’आला अलैहि व सल्लम खुदा की तरफ से जो लेकर आए जैसे तौहिद (यानी अल्लाह के जात, सिफात, अफ्आल, अहक़ाम के बारे अका़इद ) और रिसालत (यानी अल्लाह के रसूल ﷺ के जात, सिफात, अफ्आल, अहक़ाम के बारे अका़इद ),आसमानी किताबों, फरिश्तों, अच्छे बुरे तक़दीर, आखि़रत, क़यामत ये तमाम हक़ है इन सबको दिल से मान लेने का नाम ईमान है और इंकार करने का नाम कुफ्र है । ईमान एक बड़ी दौलत है जिसे यह मिल जाए वह बड़ा खुश नसीब है और उसकी हलावत व लज्ज़त से जो आशना हो जाए वह दुनिया से बेनियाज़ व ला तअल्लुक़ हो जाता है।

क़ुरआन में है : रसूल ईमान लाया उसपर जो उसके रब के पास से उस पर उतरा और ईमान वाले सब ने माना ,अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को , यह कहते हुए कि हम उसके किसी रसूल पर ईमान लाने में फ़र्क़ नहीं करते, और अर्ज़ की कि हमने सुना और माना। (कंजूल ईमान, सूरह बक़रह, आयत न. 285)

ईमाने मुजमल 

امَنتُ بِاللَّهِ كَمَا هُوَ بِأَسْمَائِهِ وَصِفَاتِهِ وَقَبِلْتُ جَمِيعَ أَحْكَامِهِ إِقْرَارُ بِاللَّسَانِ وَتَصْدِيقُ بِالْقَلْبِ 

तर्जुमा :– मैं ईमान लाया अल्लाह पर जैसा कि वोह अपने नामों और अपनी सिफ्तों के साथ है और मैं ने कुबूल किये उस के तमाम अहकाम मुझे इस का ज़बान से इकरार है और दिल से यकीन ।

 

ईमाने मुफस्सल (7 बातों पर ईमान लाना)
امَنتُ بِاللهِ وَمَلئِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَالْقَدْرِ خَيْرِهِ وَشَرِّهِ مِنَ اللَّهِ تَعَالَى وَالْبَعْثِ بَعْدَ الْمَوْتِ

“आमन्तु बिल्लाहि व मलाइकतिही व कुतुबिही व रूसुलिही वल यौमिल आखिर वल क़दरि खैरिही व शर्रिही मिनल्लाहि त’आला वल बअसि बा’दल मौत“
तर्जुमा :– मैं ईमान लाया अल्लाह पर और उस के फरिश्तों पर। और उसकी किताबों पर। और उसके रसूलों पर और आखि़रत के दिन पर । और उस पर कि अच्छी और बुरी तक़दीर का खालिक़ अल्लाह है। और मौत के बाद उठाऐ जाने (कियामत) पर ।

इल्म (जानने) का नाम ईमान नहीं

हुज़ूर अब्दुल हक़ मोहद्दीस देहलवी तहरीर फ़रमाते है ये बात भी ज़ेहन नशीन करनी चाहिए के नबीए करीम ﷺ को सिर्फ सच्चा नबी जान लेने का नाम ही ईमान नहीं बल्कि दिल से उसकी तस्दीक़ करना भी ज़रूरी है क्योंकि इल्म (यानी जानना) और चीज़ है और तस्दीक़ (यानी मानना) और चीज़ है। तस्दीक़ (मानने) का ताल्लुक़ दिल से है जबकि जानने (इल्म) का ताल्लुक़ अक़्ल से है)। हकीकत में दिल रंगे कबूल से रंगा जाता है और नूरे यक़ीन से मुनव्वर हो जाता है। इल्म सिर्फ जानने को कहते है। तमाम कुफ़्फ़ारे अरब बिल ख़ुसूस अहले यहूद तो हुज़ूर ﷺ को सच्चा नबी जानते थे और ये इल्म इतना मज़बूत था जैसे के वो अपने बेटे को पहचान रहे हो। क़ुरआन में है (तर्जुमा) : वो (नबी ﷺ को) ऐसे पहचानते है जैसे अपने बेटे को। हुज़ूर ﷺ के पैदा होने की खबरें, आप की सूरत व सीरत, आदत व ख़साइल, नाम व निशान, मकामे पैदाईश यहूद की किताबो में लिखा था। उनकी ज़बानो पर जारी था। बहुत से यहूदी इसी इंतजार में दुनिया के मुख्तलिफ मुमालिक से उठ कर मदीने में आबाद हो गए थे और अपनी उमरें इसी शौक़ में गुज़ार दीं और मरने से पहले अपनी औलादों को वसिय्यत करते रहे कि अगर नबी ﷺ आखि़रुज़्ज़मां तशरीफ लाए तो हमारा सलाम पहुँचाओ, हमारे इस्लाम लाने की ख्वाहिश का इज़हार करो। गर्ज़ के यहूद से बढ़ कर हुज़ूर ﷺ के मुतअल्लिक़ किसी दूसरे फिरके को इल्म न था। मगर जब नबूवत का आफताब तुलू हुआ यहूदियों की सक़ावते अज़ली ने इनकी अक़्लो पर पर्ददे डाल दिए और हसद व इनाद से हकीकते हाल को न पा सके। कुफ़्र व इनकार के गढ्डों में गिर गए और निजात की सारी रहो से महरूम हो गए (इस दौर में वहाबी देवबंदी और तमाम बतिल फिरके क़ुरआन और हदीस के मुताबिक नबी और औलिया की शान व अज़मत को तो जानते जरूर है लेकिन मानते  नही जैसे इल्मे ग़ैबे मुस्तफ़ा, हाज़िर व नाज़ीर, इख़्तियार वाला, हुज़ूर का वसीला, हयात, सफाअते मुस्तफ़ा, मज़ार, करामात वग़ैरह )।
इस से ये बात भी सामने आ जाती है के इल्म व अक़्ल बग़ैर इनायते इलाही अज़्ज व जल्ल और हिदायते खुदा वंदी के किसी काम नहीं आते और उसका कुछ भी असर नहीं होता। (तकमीले ईमान, पेज 113)

अमल (करने का नाम) ईमान नहीं

अमले जवारेह (ज़िस्मानी ज़ाहिरी अमल ) यानी हाथ पैर वग़ैरह से किए जाने वाले अमल या काम (जैसे, नमाज़, रोजा, तिलावत, तस्बीह वगैरह ) ईमान के अन्दर दाखिल नहीं है।(बहारे शरीयत, हिस्सा 1, ईमान व कुफ़्र का बयान, पेज 48, हिन्दी)

असल नेकी ईमान और ईमान की खसलतें हैं
अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) : कुछ असल नेकी येह नहीं कि मुँह मशरिक़ या मग़रिब की तरफ़ करो हाँ असल नेकी येह कि ईमान लायें अल्लाह और कयामत और फरिश्तों और किताब और पैग़म्बरों पर और अल्लाह की महब्बत में अपना प्यारा माल खर्च करे रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और राहगीर और साइलों को और गरदने छुड़ाने में और नमाज़ कायम रखें और ज़कात दें और जब अहद करें तो अपना कौल (वादा) पूरा करने वाले और मुसीबत, सख्ती में और जिहाद के वक़्त सब्र वाले यही हैं जिन्होंने अपनी बात सच्ची की और यही परहेज़गार है। (सूरह बक़रह, आयत न. 177)

नमाज व रोज़ा ईमान का हिस्सा नहीं

अकीदा :- अस्ले ईमान सिर्फ तस्दीक़ का नाम है यानी जो कुछ अल्लाह व रसूल  ﷺ ने फ़रमाया है उसको दिल से हक़ मानना । आ’माल (यानी नमाज़, रोज़ा वग़ैरह) ईमान का हिस्सा नहीं। (बहारे शरीयत, हिस्सा 1, ईमान व कुफ़्र का बयान, पेज 47, हिन्दी)

वोह नमाज़ी जो मोमिन नहीं

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र (रजिअल्लाहु तआला अन्हुमा) से रिवायत है कि नबी अकरम (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि लोगों पर एक ऐसा ज़माना भी आयेगा कि वो मस्जिदों में इकट्ठे होंगे और बा जमाअत नमाज़ पढ़ेंगे लेकिन उनमें मोमिन न होगा। (इब्ने अबी शैबा 6/163-हदीस 30355,  (इमाम हाकिम-अल इमाम मुस्तदरक- 4/489-हदीस-8365)

रोज़ा ईमान का हिस्सा नहीं

हदीस 1 : अगर कोई शख्स झुट बोलना और दगा बाज़ी करना न छोड़े तो अल्लाह को इसकी कोई ज़रूरत नही की वो खाना पीना छोड़ दे यानी रोजा रखे। (बुखारी शरीफ)

हदीस 2 : बहुत से रोज़ेदार ऐसे है जिन्हें उनके रोज़े से सिवाय भूख और प्यास के कुछ हासिल नहीं होता । (सिर्रुल असरार, बाब 17,  पेज 100 )

ईमान, इल्म और अमल
इल्म और अमल, ईमान के ताबे है बग़ैर ईमान के इल्म और अमल बेकार और बग़ैर इल्म व अमल के ईमान नाक़िस (कमजोर) । ईमान दिल से मानने को कहते है, इल्म अक़्ल से जानने को कहते है और अमल जिस्म से करने को कहते है लिहाज़ा इल्म व अमल के बग़ैर दिल से मानना मुमकिन है लेकिन ईमान पर क़ायम रहना मुश्किल है नतीजतन ईमान का नाक़िस होने का अंदेशा है। जैसा कि अब्दुल हक़ मोहद्दीस देहलवी तहरीर फ़रमाते है कि
ईमान बे अमल नाकिस होता है। लेकिन असल ईमान तो तस्दीक बिल कल्ब ही है । ईमान उस दरख़्त की तरह जानना चाहिए जिस का तना तस्दीक है। आ’माल व ताआत इसी तस्दीक का नतीजा होते है। जिस दरखत की टहनियां, पत्ते फल फूल और बर्ग व बार न हो।हकीकत में वो दरखत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं है। लेकिन काम का दरखत वही होता है जिसके बर्ग व बार भी हो। इसी तरह ईमाने कामिल वही है जो नेक अमाल से बर्ग व बार से पुर रौनक़ हो। बे अमल नाकिसे ईमान होगा। नाकिस ईमान को भी ईमान ही कहा जायेगा। कुरान पाक में अकसर जगह ईमान के साथ अमले सलेह को मिलाया है।
तर्जुमाः जो लोग ईमान लाए और नेक काम करते रहे
इस आयते करीमा से ये ज़ाहिर होता है कि असल ईमान की तस्दीक़ है और अमले सालेह जुदा चीज़ है। अगरचे ईमान को कामिल करने वाला यही उन्सुर है। इसकी मिसाल यूँ ज़ेहन नशीन करनी चाहिए के फलां के पास येह चीज़ भी है और वो भी। इससे ये समझा जायेगा के उसके पास दोनो चीज़ें है। मगर वो दोनों जुदा जुदा है। चुनाँचे दोंनों को एक कहना दुरुस्त नहीं और जो दोनों को एक समझते है वो ग़लती पर है। (तकमीले ईमान, पेज 113)

नबी ﷺ की मुहब्बत व इश्क़ कामिल ईमान है

प्यारे नबी ﷺ फरमाते हैंः  तर्जमाः “तुम में कोई मोमिन न होगा जब तक मैं उसके माँ, बाप, औलाद और सब आदमियों से ज़्यादा प्यारा न हो जाऊँ।“

मुहम्मद है मताए आलम ईजाद से प्यारा

पिदर, मादर, बिरादर, जानो माल से प्यारा

आ’ला हज़रत अपनी किताब तमहीदे ईमान में लिखते है यह हदीस सहीह बुख़ारी व सहीह मुस्लिम में अनस इब्ने मालिक अंसारी रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से मरवी है इसमें तो यह बात साफ फ़रमा दी कि जो हुजूरे अक़दस ﷺ से ज़्यादा किसी को अज़ीज़ (महबूब) रखे हरगिज़ मुसलमान नहीं। मुसलमानों कहो मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह ﷺ को तमाम जहान से ज़्यादा महबूब रखना मदारे ईमान व मदारे नजात हुआ या नहीं? कहो हुआ और ज़रूर हुआ। यानी उन्ही की मुहब्बत ईमान है और उसी से नजात हासिल होगी। (तम्हीदे ईमान, पेज 6)

हुज़ूर ﷺ की मुहब्बत ही ऐने (असल) ईमान क्यों?

इस उम्मत में एलाने नबूवत से पहले और तौहीद (अल्लाह कौन है,उसकी ज़ात और सिफ़ात क्या हैं) की दावत से पहले हुज़ूर ﷺ ने अपने अख़लाक़, अपने अफ़आल व अक़वाल से अपने आप (ज़ात व सिफ़ात) को मनवाया कि मैं अल्लाह का रसूल हूं और मैं अल्लाह की जानिब से हक़ लेकर आया हूँ (यानी ईमान बिन्नबी यानी नबी पर ईमान लाना)। उस वक़्त और उसके बाद जितने लोग हुज़ूर ﷺ से मुहब्बत करने वाले थे सभी ने हुज़ूर ﷺ की बातों को दिल से माना और अहले ईमान में शुमार हुए मगर वो लोग जो हुज़ूर ﷺ से बुग्ज़ रखते वो शक में पड़े और हुज़ूर ﷺ की अफ़आल व अक़वाल जानने के बावजूद उनकी ज़ात व सिफ़ात मानने से इनकार कर गए । पता चला मुहब्बत करने वाले अपने महबूब पर कमी, ख़ामी या शक का इज़हार नहीं करते और उनकी हर ज़ाहिरी व बातिनी अदा (ज़ात व सिफ़ात) को बिना देखे दिल से मान लेते है । वाज़ेह हुवा की अल्लाह पर ईमान लाने से पहले हुज़ूर ﷺ पर ईमान लाना शर्त है और हुज़ूर ﷺ पर ईमान लाने के लिए हुज़ूर ﷺ की ज़ात व सिफ़ात को मानने के साथ उन तमाम बातों को मानना ज़रुरी जो अल्लाह की ज़ानिब से हुज़ूर ﷺ ले कर आये और साथ ही उनकी बताई हुई बातों पर बिला शुबह ईमान लाने के लिए हुज़ूर ﷺ की मुहब्बत शर्त है। बगैर महब्बत किये हुज़ूर ﷺ की तमाम बातों को मानना मुमकिन नहीं शैतान ज़रूर शक में डाल कर ईमान दिल से निकाल लेगा। शरई मसला है ज़रुरियाते दीन में बात का भी इंकार और ज़र्रा बराबर भी तौहीन कुफ़्र है।

तमाम असहाब पहले हुज़ूर ﷺ पर ईमान लाये फिर हुज़ूर ﷺ के बताने से अल्लाह और अल्लाह की किताब, रसूलों,  फ़रिश्तों, क़यामत, तक़दीर, आखि़रत, मरने के बाद उठाये जाने पर ईमान लाये।

वहीं तमाम बदमज़हबों का हाल ये है कि हुज़ूर ﷺ की बातों पर ईमान लाते है लेकिन शक व शुबहात के साथ और हुज़ूर ﷺ की सिफ़ात में से बहुतर सारी ख़ूबियों पर ईमान लाने से इनकार करते हैं जैसे आपके इल्मे ग़ैब, आपके हाज़िर व नाज़िर होना, आपका वसीला लेना, आपके इख़्तियार, आपके नूर होने, निदाए या रसूलल्लाह, आपके नाम पर अंगूठा चूमना, आपकी क़ब्र ए अतहर पर हाज़री देना, आप पर सलाम पढ़ना, मीलाद मनाना, जुलूस निकालना वग़ैरहुम पर ऐतराज़ करना वहाबियों के अक़ीदे की ख़राबी है और अमल में तअ़ज़ीमें नबी (जो ईमान है) से इनकार करते है। हुज़ूर ﷺ की ताअ़ज़ीम न करना इस बात की दलील है की हुज़ूर ﷺ से मुहब्बत नहीं है। अगर मोहब्बत होती तो हर हाल में तअ़ज़ीम करते जैसा कि असहाब की जमात किया करती थी।

खुदा की रज़ा चाहते हैं दो आ़लम

खुदा चाहता है रज़ाए मुह़म्मद ﷺ

कामिल ईमान की मिसाल और ईमान की शाख़ें

हुज़ूरे अकरम ﷺ से इश्क़ व मुहब्बत ईमान की दरख़्त है और इस दरख़्त की छोटी बड़ी बहुत सी टहनियाँ और शाखें है जिनका ज़िक्र हदीस में 60 या 70 से ज्यादा है इन्ही शाखों की वजह से वह दरख्त हरा भरा सायादार इन्तिहाई खुशनुमा और निहायत ही हसीन व खूबसूरत नज़र आता है। यही मिसाल कामिल ईमान की है कि छोटी बड़ी बहुत से खसलतें हैं कि जिनकी वजह से ईमान की रौनक और खूबी में चार चाँद लग जाते हैं और उसके असरात और समरात की बदौलत साहिबे ईमान की ज़िन्दगी दोनो जहान में हुस्न व जमाल का एक ऐसा जाज़िब नज़र मुरक्कअ बन जाती है कि वह तमाम मखलूक़ की निगाहों में साहिबे वक़ार और काबिले ऐतिबार हो जाता है और दरबारे खुदावन्दी में अज़मते दारैन का हक़दार बन जाता है। लेकिन अगर दरख़्त ही न हो यानी नबी ﷺ से इश्क़ व मुहब्बत ही न हो तो ईमान की शाख़ें कैसी और शाख़ें न होगी तो आ’माल यानी नमाज़, रोज़ा वगैरह का कोई असल नहीं यानी सब बेकार।

ईमान की असल व फरअ
वाज़ेह रहना चाहिये कि अहले सुन्नत व जमाअत और अरबाबे तहक़ीक़ व मारिफ़त के दर्मियान इत्तेफाक़ है कि ईमान में असल भी है और फ़रअ भी, असल ईमान दिल से मानना है और उसकी फरअ जिस्मानी आज़ा से अमल करना है। अहले अरब यानी अलग गिरोह का मौकिफ़ है कि वह किसी फुरई बात को बतौर इस्तेआरा असल कहते हैं जैसे कि तमाम लुग़तों में शुआए आफताब को आफताब कहा गया है। इसी लिहाज़ से वह गिरोह अमल को ईमान कहते है। क्योंकि बंदा नेक अमल के बग़ैर अज़ाबे इलाही से महफूज़ नहीं रहता न ही तसदीक़ महफूज रहने की उम्मीद है, जब तक कि वह दिल से तसदीक़ के साथ अहकाम भी न बजा लाये। लिहाजा जिस की ताअतें ज्यादा होंगी वह अजाबे इलाही से ज्यादा महफूज़ होगा। चूंकि तसदीक व कौल के साथ, अमल महफूज़ रहने का ज़रिया है। इसलिए इसको भी ईमान कह देते है (कशफुल महज़ूब हिन्दी, पेज 386)
मशहूर मुसन्निफ़ अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी अलैहिर्रहमह 40 हदीस की शरह वाली किताब “मुन्तख़ब हदीसें“ में तहरीर फ़रमाते हैंः-
ईमान असल है और आमाल उसकी फरअ हैं। इसलिए कि इस हदीस में या दूसरी हदीसों में जहाँ जहाँ भी आमाल को ईमान कहा गया है, मजाज़ के तौर पर कहा गया है। वरना ज़ाहिर है कि आ’माल ईमान का हिस्सा नहीं हैं। क्योंकि कुरआन व हदीस में बे शुमार जगहों पर ’आमेनू व अमेलुस्सालेहात’ (तर्जमा : ईमान लाओ फिर नेक अमल करो) का लफ़्ज आया है और अमल का ईमान पर अत्फ़ किया गया है और अत्फ़ का तक़ाजा यही है कि मातूफ (2 को मिलना जैसे ईमान और अमल) और मातूफ इलैह में तगार हो। (यानी ईमान के साथ अमल को मिला कर बोला गया लेकिन ईमान का दर्जा बुलंद है और अमल ईमान के ताबे यानी गुलाम है, जिस तरह बादशाह और ग़ुलाम में फर्क है उसी तरह ईमान और अमल में फ़र्क़ है ) लिहाजा साबित हुआ कि अमल और चीज़ है और ईमान और चीज़ है। ईमान असल और आ’माल ईमान की ख़सलतें और अलामतें हैं। या यूँ कह लीजिए कि आ’माल ईमान के असरात व समरात (नतीजे) हैं। (मुन्तख़ब हदीसें, पेज 55, हिन्दी)

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