GKR Trust

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October 2023

7 Baaton Per Iman Lana

ईमाने मुफस्सल (7 बातों पर ईमान लाना)
“आमन्तु बिल्लाहि व मलाइकतिही व कुतुबिही व रूसुलिही वल यौमिल आखिर वल क़दरि खैरिही व शर्रिही मिनल्लाहि त’आला वल बअसि बा’दल मौत“
तर्जुमाः :- मैं ईमान लाया अल्लाह पर और उस के फरिश्तों पर। और उसकी किताबों पर। और उसके रसूलों पर और कियामत के दिन पर । और उस पर कि अच्छी और बुरी तक़दीर का खालिक़ अल्लाह है। और मौत के बाद उठाऐ जाने पर।

ईमान मुफ़स्सल में जिन सात चीज़ों का ज़िक्र हुआ है उन पर हर मुसलमान को ईमान लाना और अक़ाइद को दुरुस्त रखना ज़रूरी है और सात चीजें यह हैं।
(1) अल्लाह तआला पर ईमान लाना (ईमान बिल्लाह, तौहीद यानी अल्लाह के बारे में अक़ाइद)
(2) उसके रसूलों पर ईमान लाना
(3) अल्लाह तआला की किताबों पर ईमान लाना
(4) उसके फरिश्तों पर ईमान लाना
(5) यौमे आखिरत पर ईमान लाना
( 6 ) तकदीर का अल्लाह की तरफ से होना
(7) मौत के बाद उठाए जाने पर ईमान लाना।

About Islam

About Islam

अल्लाह के नज़दीक पसंदीदा दीन इस्लाम है
हज़रते बज़्ज़ाज़ रदीअल्लाहु अन्हु ने नबी ए मुकर्रम ﷺ से रिवायत किया है कि आप अलैहिस्सलातु वस्सलाम ने इरशाद फ़रमाया कि जब मुश्रिकीन ने अपने अपने दीनों पर फख्र करना शुरू किया और हर फरीक़ येह कहने लगा कि हमारे दीन के सिवा कोई दीन हक़ नहीं और वही अल्लाह का दीन है उस वक्त से जब से अल्लाह त’आला आदम अलैहिस्सलाम को मबऊस फ़रमाया तो अल्लाह त’आला ने यह आयते तय्यबा नाज़िल फ़रमाई, “तर्जुमा : बेशक अल्लाह के नज़दीक पसंदीदा दीन दीने इस्लाम है”(सूरह इमरान, आयत न. 19) । और उनको अल्लाह त’आला ने इस क़ौल के साथ झुठलाया कि अल्लाह का दीन तो वोह दीने इस्लाम है जो मुहम्मद ﷺ लाए हैं और यही दीने हक़ है। (ज़ियाउल वाईजिन)

इस्लाम की अहमियत 
दीने इस्लाम में चलने के लिए जो कानून बना उसे शरीअत कहते है जो शैतान से बचा कर अल्लाह तक पहुॅचाता है। अल्लाह तआला के नज़दीक मकबूल व पसन्दीदा दीन इस्लाम ही है। जब इब्लीस आदम अलैस्सिलाम का ताजिमी सज्दा न करके तौहीन किया और अल्लाह की नाफरमानी करके और आदम अलैहिस्सलाम को सजदा न करके शैतान बना तो कसम खा कर बोला मैं सीधे रास्ते मे बैठ जाऊंगा और तेरे बंदे को गुमराह कर दूंगा और तेरा शुक्रगुजार बन्दा नही रहने दूंगा । शैतान फिर बोला मैं इंसानो को पीस डालूंगा। अल्लाह अपने बंदों को शैतान से बचाने के लिए इस्लाम मजहब में सीधा रास्ता बना दिया इस रास्ते मे चलने के लिए क़ुरआन, अम्बिया, औलिया को इस दुनिया मे जाहिर किया। जो हमे चल के बता गए। सीधा रास्ता का ज़िक्र क़ुरान में यूं है (तर्जुमा) : हमको सीधा रास्ता चला, रास्ता उनका जिन पर तूने एह़सान किया ( सूरह फातेहा, आयत न. 6-7)

अल्लाह तआला इरशाद फरमाता हैः
तर्जुमा : तुम्हारे लिए इस्लाम को दीन पसन्द किया । (सुरहः माएदा, आयात 3)

तर्जमा : इस्लाम के सिवा कोई दीन चाहेगा वह हरगिज़ इससे कबूल न किया जाएगा और वह आख़रित में जियांकारों से। (सूरह इमरान, आयत न. 85)

इस्लाम मे कोई ज़बरदस्ती नहीं
अल्लाह फ़रमाता है : कुछ ज़बरदस्ती नहीं दीन में, बेशक खूब जुदा हो गई है नेक राह गुमराही से, तो जो शैतान को न माने और अल्लाह पर ईमान लाये उसने बड़ी मोहकम (मजबुत) गिरह थामी जिसे कभी खुलना नहीं। (सूरह बक़रह, आयत न. 256)

इस्लाम मे कोई मज़बूरी नहीं
अल्लाह फ़रमाता है : हम किसी जान पर बोझ नहीं डालते मगर उसकी ताक़त भर। (सूरह अनआम, आयत न. 152)
अल्लाह फ़रमाता है : वो जो ईमान लाये और ताकत भर अच्छे काम किये हम किसी पर ताक़त से ज़्यादा बोझ नहीं रखते वो जन्नत वाले हैं उन्हें उसमें हमेशा रहना (सूरह अआराफ, आयत न. 42)

दीने इस्लाम के 2 बाब
1. ईमान और 2. अमल, जिस तरह इंसान रूह और जिस्म का मजमुआ है और रूह असल है, रूह है तो जिस्म ज़िन्दा है वरना बेकार ठीक उसी तरह इस्लाम ईमान और अमल का मजमुआ है लेकिन ईमान असल है, ईमान है तो अमल दरुस्त है वरना बेकार। ईमान की अहमियत और हकीकत को जानो और ईमान की अलामतों और खसलतो को पहचानों । ईमान और ईमानी खसलतों का तअल्लुक़ दिल से है जबकि अमल का तअल्लुक जिस्म से है।
कुरआन में कई जगह है : आमिनू व आमिलुस्सालिहात“(तर्जमाः ईमान लाओ और नेक अमल करो) इस आयत से पता चला की ईमान और अमल अलग अलग है।

इस्लाम और अरकाने इस्लाम
इस्लाम के माना :- इस्लाम के माना लुगत में फरमाँ बरदार होना हुज़ूरﷺ के लाए हुए दीने बरहक़ को इस्लाम इसी लिए कहा जाता है कि जो इस दीन को कबूल करता है वह अपने को बिल्कुल अल्लाह त’आला का फ़रमाँबरदार बना लेता है। चुनाँचे इस हदीस में जिन आ’माले इस्लाम का ज़िक्र है यानी इबादत, नमाज़, ज़कात, रोज़ा और मुफस्सल हदीस में कलिमए शहादत और नमाज़ रोज़ा और हज व जकात यह सब आ’माल खुदा की फरमाँबरदारी के खासुल खास निशान हैं। इसी लिए हुजूर ﷺ ने इनको अरकाने इस्लाम क़रार दिया और फरमाया कि इस्लाम की बुनियाद पाँच चीजों पर है
1. कलिमए शहादत, 2. नमाज़, 3. रोज़ा, 4 ज़कात 5 हज इन पाँचों को हर मुसलमान अच्छी तरह जानता है। थोड़ी तफ्सील हम भी यहाँ तहरीर कर देते हैं।
कलिमए शहादतः कलिमए शहादत का मफहूम और मतलब – यह है कि सिद्क दिल से अल्लाह के एक होने और माबूद होने और हज़रत मुहम्मद ﷺ के रसूल होने की गवाही देना और दिल से मानते हुए जबान से “अशहदो अन ला इला-ह इल्लल्लाहु वहदहू ला शरीक लहू व अशहदु अन् न मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू“ कहना। इसमें तमाम ज़रूरी अकाइद इस्लाम में दाखिल हैं क्योंकि जिसने हुजूर अकरम ﷺ को दिल से अल्लाह का रसूल मानकर उनकी रिसालत की गवाही दे दी गोया हर उस चीज की तस्दीक़ करदी जिसको हुज़ूर ﷺ खुदा की तरफ से लाए। (मुन्तख़ब हदीसें, पेज 41,42, अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी)

इस्लामी बुनियाद का 2 बाब
इस्लाम की बुनियाद जिन 5 चीजों पर है उनमें 1. कलिमए शहादत जो ईमान का बाब है और बाकी 4 अरकान जैसे नमाज़, रोज़ा, हज़्ज़ व ज़कात अमल का बाब है। पता चला कि ईमान और अमल इस्लाम का बुनियाद है। बग़ैर ईमान का अमल बेकार और बग़ैर नेक अमल का ईमान नाक़िस होने का अंदेशा है।

इस्लाम में पूरे दाखि़ल हो जाओ
अल्लाह फ़रमाता है : ऐ ईमान वालो इस्लाम में पूरे दाखि़ल हो जाओ और शैतान के क़दमों पर न चलो बेशक वह तुम्हारा खुला दुश्मन है। (सूरह बकरह, आयत नं. 208)

Zakat

जका़त तहसीलने का हुक़्म
अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) : ऐ महबूब उनके माल में से जका़त तहसील करो जिससे तुम और भी उन्हें सुथरा और पाकीज़ा कर दो उनके हक़ में दुआए खैर करो बेशक तुम्हारी दुआ उनके दिलों का चैन है और अल्लाह सुनता जानता है। (कंजूल ईमान, सूरह तौबा, आयत न. 103)

ज़कात से हिदायत और परहेज़गारी का हुसुल
क़ुरआन में है (तर्जमा) : हिदायतयाफ्ता और परहेज़गार वो है जो हमारी दी हुई रोज़ी में से हमारी राह में उठाएं (खर्च करे)। (कंजूल ईमान, सूरह बक़रह, आयत नं. 2,3)

कामयाबी ज़कात की अदायगी में
क़ुरआन में है (तर्जमा) : कामयाब होते है वो जो ज़कात अदा करते है। (कंजूल ईमान, सूरह मोमीनून, आयत नं. 4)

ज़ाक़त देने वाले को न कुछ डर न कुछ ग़म
क़ुरआन में है (तर्जमा) : वो जो अपने माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते है फिर दिये पीछे न एहसान रखें न तकलीफ़ दें उनका नेग उनके रब के पास है और उन्हें न कुछ डर हो न कुछ ग़म। (कंजूल ईमान, सूरह बक़रह, आयत नं. 262)

ज़कात देने वालो को दो गुना अजर
क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) : उनको उनका अजर दो गुना दिया जाएगा बदला उनके सब्र का और वो भलाई से बुराई को टालते हैं और हमारे दिये से कुछ (2.5%) हमारी राह में ख़र्च करते हैं। (कंजूल ईमान, सूरह क़सस, आयत नं. 54)

ज़कात अदा किए बगैर भलाई हासिल नहीं कर सकते
क़ुरआन में है (तर्जमा) : तुम हरगिज़ भलाई को न पहुंचोगे जब तक राहे खुदा में अपनी प्यारी चीज़ ख़र्च न करो और तुम जो कुछ ख़र्च करो अल्लाह को मालूम है। (कंजूल ईमान, सूरह इमरान, आयत नं. 92)

ज़कात देना असल नेकी और परहेज़गारी है
क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) : कुछ अस्ल नेकी यह नहीं कि मुंह मश्रिक़ (पूर्व) या मग़रिब (पश्चिम) की तरफ़ करो हाँ अस्ल नेकी ये कि ईमान लाए अल्लाह और क़यामत और फ़रिश्तों और किताब और पैग़म्बर पर और अल्लाह की महब्बत में अपना अज़ीज़ माल दे रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और राहगीर और सायलों (याचकों) को और गर्दन छुड़ाने में और नमाज़ क़ायम रखे और ज़कात दे, और अपना क़ौल पूरा करने वाले जब अहद करें,और सब्र वाले मुसीबत और सख़्ती में और जिहाद के वक़्त, यही हैं जिन्होंने अपनी बात सच्ची की, और यही परहेज़गार हैं। (कंजूल ईमान, सूरह बक़रह, आयत नं. 177)

ज़कात न देने वालो के लिए दर्दनाक अज़ाब
क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) : वो जो जोड़ कर रखते हैं सोना और चांदी और उसे अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते उन्हें ख़ुशख़बरी सुनाओ दर्दनाक अज़ाब की, जिस दिन वह तपाया जाएगा जहन्नम की आग में फिर उससे दाग़ेंगे उनकी पेशानियाँ और कर्वटें और पीठें यह है वह जो तुमने अपने लिये जोड़ कर रखा था अब चखो मज़ा उस जोड़ने का।
(कंजूल ईमान, सूरह तौबा, आयत नं. 34- 35)

वो माल अच्छा नही बल्कि बुरा है
क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) :
जो बुख़्ल (कंजूसी) करते हैं उस चीज़ में जो अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़्ल से दी हरगिज़ उसे अपने लिये अच्छा न समझें बल्कि वह उनके लिये बुरा है अन्करिब वह जिसमें बुख़्ल किया था क़यामत के दिन उनके गले का तौक़ होगा और अल्लाह ही वारिस है आसमानों और ज़मीन का और अल्लाह तुम्हारे कामों से ख़बरदार है।(कंजूल ईमान, सूरह इमरान, आयत नं. 180)

माल जमा करने वालो का अंजाम
क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) : जिसने माल जोड़ा और गिन गिन कर रखा, क्या वह समझता है कि उसका माल उसे दुनिया में हमेशा रखेगा हरगिज़ नहीं ज़रूर वह रौंदने वाली में फ़ैका जाएगा और तूने क्या जाना क्या रौंदने वाली अल्लाह की आग के भड़क रही है वह जो दिलों पर चढ़ जाएगी बेशक वह उनपर बन्द कर दी जाएगी लम्बे लम्बे सुतूनों में।(कंजूल ईमान, सूरह हुमाज़ह, आयत नं. 2-9)

Allah Ke liye Muhabbat

महब्बत की हक़ीक़त
महब्बत  दिली कैफ़ियत का नाम है। महब्बत नाम है दिलों के जुड़ाव का। महब्बत कहते हैं किसी ज़ात की ख़ूबियों की वजह से उसकी तरफ़ दिल के झुक जाने को। महब्बत करने वाला अपने महबूब (जिससे वोह मुहब्बत करता है) के दिली तौर पर क़रीब होता है और ज़ाहिरी तौर पर भी क़रीब रहना चाहता है, वहीं नफ़रत दूरी का सबब है। मुहिब महबूब को अपना दिल दे देता है नतीजतन उसके दिल पर महबूब का इख़्तियार होता है और वोह अपने महबूब के ताबे होकर उसके कहे पर अमल करता है। इंसान को जिस चीज़ से महब्बत हो जाए उसकी सारी तवज्जोह, तमाम कोशिशें और सारी मेहनत उस चीज़ को पाने के लिए होतीं हैं। अगर येह महब्बत दुनिया से हो जाये तो सारी कोशिशें दुनिया और दुनिया की फ़ानी चीज़ों को हासिल करने की तरफ़ होंगी और अगर यही महब्बत दीन से हो जाए तो उसकी सारी कोशिशें आख़िरत और उख़रवी ने’मतों को हासिल करने के लिए होंगी। अगर महबूब हक़ वाला (अम्बिया, औलिया, औलमा में से) है तो अपने चाहने वाले को अल्लाह की तरफ़ ले जाता है लेकिन अगर महबूब बातिल है तो अपने चाहने वाले को शैतान की तरफ़ ले जाता है। क़ुरआन-ओ-हदीस में जहां भी अल्लाह के लिए महब्बत करने का हुक्म है वहां सिर्फ़ हक़ वालों की तरफ़ इशारा है जैसे अम्बिया, औलिया, शोहदा, सालेहीन, मोमिनीन वग़ैरहुम और जहां अल्लाह के लिए नफ़रत करने (बुग्ज़ रखने) का हुक़्म हुआ वहां सिर्फ़ बातिल और बातिल वालों की तरफ़ इशारा है जैसे नफ़्स ओ शैतान, दुनिया, कुफ़्फ़ार, मुनाफ़िकीन, मुर्तद्दीन और तमाम बदमज़हब। वल्लाहु अ’अलम। (मुसन्निफ़)

अल्लाह के लिए नफ़रत व मुहब्बत ईमान है
हदीस  :- ईमान की चीज़ों में सब में मज़बूत अल्लाह के बारे में मुवालात (महब्बत ) है और अल्लाह के लिए महब्बत करना और नफ़रत रखना । (बहारे शरीअत, हिस्सा 16)

हदीस :- रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया तुम्हें मालूम है अल्लाह के नज़दीक सबसे ज्यादा कौन सा अमल है किसी ने कहा नमाज़ रोज़ा ज़कात और किसी ने कहा जिहाद । हुज़ूर ने फरमाया सबसे ज़्यादा अल्लाह को प्यारा अल्लाह के लिए मुहब्बत (दोस्ती) और नफ़रत (बुग़ज़) रखना है। (बहारे शरीअत, हिस्सा 16)

अल्लाह के लिए मुहब्बत का मतलब
अल्लाह के लिए मुहब्बत का मतलब यह है कि अल्लाह की रज़ा के लिए तमाम हक़ वालों (उलमाए हक़ व हक़ अवमुन्नास) से मुहब्बत व दोस्ती रखना। उनसे मिलना जुलना, सलाम, कलाम, रिश्तेदारी, हाज़तरवाई, ख़िदमत, सख़ावत, ईसार का जज्बा वगैरह

अल्लाह के लिए नफ़रत का मतलब
इसी के बरअक्स अल्लाह के लिए नफ़रत का मतलब है कि अल्लह की रज़ा के लिए तमाम बतिलों जैसे कुफ़्फ़ार, मुनाफिक़ीन, बदअक़ीदों, मबमज़हबों, गुमराहों से नफ़रत, अदावत, दिली दुश्मनी, करना और उनकी मुसाबीहत न करना। उनसे मेल जोल से बचना , सलाम , कलाम, रिश्तेदारी, दोस्ती वग़ैरह से तर्क व परहेज़ करना।

महब्बत की अहमियत
अल्लाह के लिए महब्बत, ईमानी खसलत का नाम है। हुक़ूकुल इबाद (बंदों के हक़) की अदाएगी के लिए आपसी महब्बत का होना बहुत ही ज़रूरी है। इसके बग़ैर दूसरे मुसलमानों का हक़ अदा करने का जो हुक्म है उस पर अमल नामुमकिन है। जब कोई किसी से महब्बत करता है तो उसे उसके अंदर खूबियां नज़र आतीं हैं , उसकी ज़रूरत को अपनी ज़रूरत समझता है, उसके लिए रहम के जज़्बात रखता है, उसके लिए वही पसंद करता है जो अपने लिए पसंद करता है। येह तमाम खसलतें ईमानी खसलतें है। इस महब्बत के रहते एक मुसलमान के दिल में दुसरे मुसलमान के लिए हसद, कीना, नफ़रत जैसी बुरी खस्लतें जमा नहीं होंगी, उसकी ज़बान मुसलमान भाई की ग़ीबत, चुग़ली, उसे गाली देने और उसके खिलाफ़ झूठ से महफूज़ रहेगी और उसका हाथ क़त्लो गारत, ख़यानत, लड़ाई झगड़ा जैसे कामों से बचा रहेगा।

अल्लाह के लिए मोहब्बत

अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है कि जो लोग मेरी वजह से आपस में महब्बत रखते हैं और मेरी वजह से एक दूसरे के पास बैठते हैं और आपस में मिलते जुलते है और माल खर्च करते हैं उनसे मेरी महब्बत वाजिब हो गई। (बहारे शरीयत, हिस्सा 16, पेज 245 )

मुहब्बत करने का हुक़्म
हजरत अब्बास रदियाल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूले मकबूल ﷺ ने फरमाया: जो नेमतें अल्लाह त’आला तुम (उम्मती) को दे रहा है उनके बाइस उनसे महब्बत रखो और मुझसे खुदाए त’आला की महब्बत की वजह से महब्बत रखो और मेरी महब्बत की वजह से मेरे अहले बैत से महब्बत रखो। (तिर्मिजी शरीफ-जिल्द 2 सफा 768)

हक़ वालो से मुहब्बत रखो
अल्लाह और उस के रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की मोहब्बत के बाद अपने दूसरे मोमिन भाइयो से प्यार और मोहब्बत रखनी चाहिए और ऐसे लोगो से दोस्ती और मुहब्बत इख्तियार करना चाहिए जो मुत्तक़ी, नमाज़ी हो और ज़कात देने वाले हों और रुकूअ करने वाले हो उस से मालूम हुआ कि सिराते मुस्तकीम के मुसाफिर आपस में भाई भाई हैं और अहले ईमान का एक गिरोह है जो अल्लाह का गिरोह कहलाता है उस के मुकाबिले में शैतान का गिरोह है लिहाज़ा अल्लाह वालो के लिए ताकीद है कि वह ऐसे लोगो ही को दोस्त और साथी बनायें । जो अल्लाह के गिरोह को छोड़ कर गैरो से यानी शैतान वालो (कुफ़्फ़ार, मुनाफिक़ीन, बदअकीदा, बदमज़हबो) से तअल्लुक रखेगा तो अल्लाह उसका मददगार, नासिर और हामी न होगा। यानी ताईदे खुदावन्दी उस के शामिल हाल न होगी, लिहाजा हमें सबक मिला कि हम नमाज़ी ज़कात देने वाले मुत्तकी परहेज़गारो और अल्लाह वालों को दोस्त बनायें और दीनदार लोगो की सोहबत इख़्तियार करें।

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