Ilme Jahir Aur Bateen
इल्मे ज़ाहिर और इल्मे बातिन

इल्मे दीन 2 तरह का है (इल्मे हुसूली और इल्मे हुज़ूरी)
इल्म की दो तर्ज़ें मुतअय्यन हैं। इल्म की एक तर्ज़ इल्मे हुज़ूरी है और इस तर्ज़ को रूहानी साइंस में इक्तेसाब कहते हैं। यानि ऐसा इल्म जो अक़्ल के इस्तेमाल से सीख लिया जाए। जितना ज़्यादा अक़्ल का इस्तेमाल होगा उसी मुनासिबत से इस इल्म में इज़ाफ़ा होता चला जाएगा।
इल्मे हुसूली दर असल ऐसा इल्म है कि आदमी अपनी कोशिश, मेहनत, जद्दो जहद और सलाहियतों के मुताबिक़ ज़ाहिरी असबाब में रहकर सीखे और इस इल्म में माद्दी वसाइल ले आए। इक्तेसाबी इल्म आदमी को अपनी ज़हनी सलाहियतों के मुताबिक़ और अक़्ल के इस्तेमाल के ज़रिए ब तदरीज हासिल होते रहते हैं। यानि जिस इल्म के लिए जितनी अक़्ल इस्तेमाल की जाए उसी क़द्र येह इल्म बन्दे के लिए रोशनी बनता चला जाएगा।
इसकी एक मिसाल देता हूं कि एक आदमी लोहार बनना चाहता है। उसके सामने तीन चीज़ें हैं एक लोहा, दूसरी वोह सलाहियत जो लोहे को मुख़्तलिफ़ शक्लों में ढालती है और तीसरी उसकी सलाहियत का इस्तेमाल। अब वोह सलाहियत को इस्तेमाल करता है तो सलाहियत के मुताबिक़ लोहे से बेशुमार चीज़ें बनती चली जातीं हैं।
और दूसरा इल्म है इल्मे हुसूली। येह ऐसा इल्म है जो वसाइल के यक़ीन के साथ सिखाया जाता है। वसाइल होंगे तो येह इल्म सीखा जाएगा, वसाइल नहीं होंगे तो येह इल्म नहीं सीखा जा सकता। क्यूंकि क़लम होगा तो तहरीर काग़ज़ पर मुंतकिल होगी, क़लम न होगा तो तहरीर वजूद में न आएगी। मतलब येह है कि क़लम वसीला है इस बात के लिए कि तहरीर को क़ाग़ज़ पर मुंतकिल किया जाए। इल्मे हुसूली के लिए वसाइल के साथ साथ उस्ताज़ की भी ज़रूरत होती है।
इल्मे हुज़ूरी वोह इल्म है जो हमें ग़ैब की दुनियाँ में दाख़िल करके ग़ैब से मुतअर्रिफ़ करवाता है। और येह ऐसा इल्म है जो माद्दी वसाइल का मोहताज नहीं है। इसको सीखने के लिए क़ागज़, क़लम, दवात की ज़रूरत पेश नहीं आती। लेकिन जिस तरह हुसूली इल्म को सीखने के लिए उस्ताज़ की ज़रूरत होती है उसी तरह हुज़ूरी इल्म को सीखने के लिए रूहानी उस्ताज़ यानि मुर्शिद की ज़रूरत पेश आती है और दूसरा येह की येह इल्म वक़्त और मकान (टाइम और स्पेस) की हदों से परे है। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि उस्ताज़ माद्दी क़दो ख़ाल के साथ शागिर्द के सामने मौजूद हो। इस इल्म में मुर्शिद का काम सिर्फ़ इतना है कि वो तालिब पर निगाहे करम और तवज्जोह के ज़रिए सलाहियतों का इस्तेमाल सिखा दे और यहाँ मुरीद के लिए भी सिर्फ और सरफ एक बात की ज़रूरत है कि वोह अपनी ज़ात की इस तरह नफ़ी (इन्कार) कर दे कि उसके अन्दर बजुज़ मुराद के कोई चीज़ नज़र न आए यानि वोह अपनी हर ख़्वाहिश को ख़त्म कर दे। जैसे जैसे येह तर्ज़ मुरीद के अन्दर मुस्तहकम होगी वैसे वैसे मुराद (पीर) की तर्ज़े फिक्र मुरीद के अन्दर मुंतकिल होती रहेगी।
अब देखो की हज़रत ओवैस क़रनी और सय्यिदुना रसूले करीम अलैहिस्सलाम की मिसाल हमारे सामने है। ओवैसे क़रनी हुज़ूरे अकरम ﷺ से कभी मिले भी नहीं लेकिन महब्बत और क़ुरबत का येह आलम था कि हुज़ूरे अकरमﷺ शाम की तरफ़ रुख़ फ़रमाते थे तो चेहरा ए मुबारक ख़ुशी से तमतमा जाता था। और फ़रमाते थे शाम से मुझे दोस्त की खुश्बू आती है। दर अस्ल आदमी के अन्दर दिलो दिमाग़ एक स्क्रीन की तरह है। कहीं से कोई चीज़ नश्र होती है हज़ारों मील दूर से, बर वक़्त वोह किसी तस्वीर की तरह स्क्रीन पर मुंतकिल हो जाती है। वोह तस्वीर बनती है, बोलती है और हंसती भी है और वोह तस्वीर रोती भी है। हालाँकि येह इल्म (टेली कास्टिंग) हुसूली है कि जिसके लिए लोगों ने मेहनतें कीं, कोशिशें कीं और मीलों मील के फ़ासले से उन्होंने आदमी को लहरों में तब्दील करके दूर दराज़ मुंतकिल कर दिया। इसी तरह जब कोई मुराद अपने मुरीद की तरफ़ मुतवज्जह होता है। तो उसके अन्दर टाइम और स्पेस को हज़फ़ करने की सलाहियत मुरीद के दिलो दिमाग़ पर मुंतकिल हो जातीं हैं। जैसे जैसे येह सलाहियतें मुंतकिल और मुतहर्रिक होती रहतीं हैं वैसे वैसे मुरीद के अन्दर ज़हनी और क़ल्बी तब्दीली आती रहती है। इंतेहा येह है कि मुरीद की तर्ज़े फिक्र मुराद की तर्ज़े फिक्र बन जाती है और मुराद की सलाहियतें मुरीद की सलाहियतें बन जातीं हैं। और जब येह अमल अपने उरूज को पहुँचता है तो मुराद और मुरीद एक हो जाते हैं। इसे हम फ़ना फिश्शैख़ कहते हैं। यहाँ तक कि दोनों की गुफ़्तगू एक हो जाती है, दोनों की शक्लो सूरत एक हो जातीं है, दोनों का तर्ज़े कलाम एक हो जाता है। ऐसे बेशुमार वाक़यात तारीख़ के सफ़हात में मौजूद हैं कि मुराद के सर में दर्द हुआ तो मुरीद ने भी उस दर्द को महसूस किया और पट्टी बाँध ली। मुराद को बुख़ार हुआ तो मुरीद भी बुख़ार में तड़पने लगा। जबकि दोनों के बीच फ़ासला सैकड़ों बल्कि हज़ारों मील का था। जिस तरह हज़रत सुलतानुल आरिफ़ीन फ़रमाते हैं, ” सेकों हांते मेरा मुर्शिद वस्ता, मेनु विच हज़ूर दी सीवे हु, की होगा ओ तो उडे रोया दिल हरगिज़ दूर न थीवे हु”। येह हुज़ूर सुल्तानुल आरिफ़ीन का शे’र भी इस बात की गवाही दे रहा है। जब (इस शे’र की) तहक़ीक़ की गई तो पता चला कि दोनों (मुर्शिद और मुरीद) एक ही वक़्त बुख़ार में मुब्तला हुए।
देखो अगर मुरीद के अन्दर जज़्ब ए सादिक़ है और मुराद से इश्के तरेचे में मुहब्बत करता है और अपनी ज़ात की नफ़ी करके सब कुछ मुराद को समझता है तो फिर दूर दराज़ के फ़ासले महदूम हो जाते हैं। और मुरीद हज़ारों मील दूर बैठ कर भी अपने पीरो मुर्शिद से फ़ैज़ याब हो पाता है। जिस तरह कि सुल्तानुल आरिफ़ीन ने फ़रमाया है कि येह इल्म मुंतकिल होता है, सिखाया नहीं जाता।
इल्मे शरीअत और इल्मे तरीक़त
इल्मे ज़ाहिरी और इल्मे बातिनी यानी इल्मे शरीअत और इल्मे तरीक़त। शरीअत का हुक़्म हमारे ज़ाहिर और तरीक़त का हमारे बातीन पर नाफ़िज़ होता है। इन दोनों इल्मो के इज्तमा (मिलाप) का समरा इल्मे हक़ीक़त है। जैसे दरख़्त और पत्तो के इज्तमा का नतीजा फल हैं।
सिर्फ ज़ाहिरी इल्म से हक़ीक़त तक रसाई मुमकिन नहीं और न मंजिले मुराद तक पंहुचा जा सकता है। काबिले क़बूल इबादत कि तकमील के लिए दोनों उलूम का होना जरूरी है एक ना क़ाफी है जैसे कि अल्लाह ताआला ने फरमाया (तर्जुमा) : मैंने जिन्न और आदमी इतने ही के लिये बनाए कि मेरी बन्दगी करें (कंजूल ईमान, अल ज़रियात, आयत न. 56) यानी मेरी मार्फत (पहचान) के लिए कोसां (तलबगार) क्योंकि जो उस जाते हक़ की मार्फत (पहचान) नहीं रखेगा वो उसकी इबादत कैसे कर पायेगा। अल्लाह की पहचान क़ल्ब की सफाई और आइनाये दिल से ख़्वाहिशाते नफ्सानिया की मैल कुचैल को दूर करने से ही हासिल की जा सकती है और जब अल्लाह की पहचान हासिल हो जाती है तो जमाले कुंज मख़फ़ी का दिल की इंतहाई गहराई मकाम से मुशाहिद (यानी बातिनी आंख से साफ साफ देखना) मुमकिन होता है।
चुनांचे हदीसे क़ुदसी में है अल्लाह ता’अला फ़रमाता है। मैं मख़्फी (छुपा हुआ) खज़ाना था पस मुझे मुहब्बत हुई के मेरी पहचान हो तो मैंने मख़लूक़ की तख़लीक़ (पैदाइस) शुरू फ़रमा दी। ताकि वह मेरी पहचान से बहरामन्द हो लिहाज़ा यह बात अच्छी तरह वजेह हो गई के अल्लाह ता’अला ने इंसान को अपनी पहचान के लिए ही तख़लीक़ फरमाया है। (सिररुल असरार, पेज 64)
बातिनी इल्म क्या है
एक आरिफ से बातिनी इल्म के मुतअ़ल्लिक पूछा गया उन्होंने कहा वह अल्लाह तआ़ला का राज़ है जिसे वह अपने दोस्तों (औलिया) के दिलों में डाल देता है (इल्हामी) और किसी फरिश्ते और इंसान को उस की खबर तक नहीं होती। (मुकाशफतुल क़ुलूब, बाब 27, पेज 169 )
इल्मे बातिन का दरजा
हज़रत जुन्नून मिसरी रहमतुल्लाह तआला अलैह फरमाते हैं कि :
* मैंने एक बार सफर किया और वह इल्म लाया जिसे ख़्वास व अवाम सबने कबूल किया।
दोबारा सफर किया और वह इल्म लाया जिसे ख़्वास ने कबूल किया, अवाम ने न माना।
* तीसरी बार सफर किया और वह इल्म लाया जो ख़्वास व अवाम किसी की समझ में न आया ।
दोनों इल्म का हुसुल जरूरी है :
सिर्फ कुतुब बीनी से ही इल्म हासिल नहीं होता बल्कि इल्म अफवाहे रिजाल से भी हासिल होता है । ज़ाहिरी इल्म से इबादत व अमल तो किया जा सकता है लेकिन माबूदे हक़ को पहचाना नामुमकिन है और माबूदे हक़ को पहचाने बग़ैर किया हुआ अमल व इबादत माबूदे बातिल के लिए होगा जैसे नफ़्स, शैतान व दुनिया ये माबूदे हक़ के बरख़िलाफ़ है जो लोगो के ज़ाहिरी इल्मे से किया हुआ अमल व इबादात को रिया, लालच, हसद, खुदपसंदी, तकब्बूर के जरिये बर्बाद कर देते है। ऐसे लोगो की अलामत यह है कि वो हक़ का दावेदार होंगे और बातिल का तलबगार होंगे यानी उनके दिल मे दुनिया की मुहब्बत होगी, मजबूरी के नाम पर नेकी के साथ गुनाह भी करेंगें, हक़ व बातिल को मिला कर चलेंगे और हराम व मुस्तबह चीजों से नहीं बच पाएंगे।
दोनों इल्म का हुसुल फ़र्ज़ है
हुज़ूर दातागंज बख़्श हज़वेरी रहमतुल्लाह अलैह तहरीर फ़रमाते है हर शख़्स पर लाज़िम है कि अहकामे इलाही (अल्लाह की इबादत के ) और मारफते इलाही (हक़ीक़ी अल्लाह को पहचानने) के इल्म के हुसूल में मशगूल रहे। बन्दे का इल्म वक़्त के साथ फ़र्ज़ किया गया है यानी जिस वक़्त पर जिस इल्म की ज़रूरत हो ख़्वाह वह ज़ाहिर में हो या बातिन में उसका हासिल करना फर्ज़ किया गया है। इस इल्म के दो हिस्से हैं। एक का नाम इल्मे उसूल है और दूसरे का नाम इल्मे लदुनि। ज़ाहिर इल्मे उसूल में कलिमा-ए-शहादत यानी- जबान से एकरार करना और बातिन इल्मे उसूल में तहकीके मारिफ़त यानी अल्लाह ﷻ को पहचाननें में कोशिश करना है। और ज़ाहिर इल्मे फरूअ में लोगों से जबानी और जिस्मानी हुसने मुआमिला और बातिन इल्मे फरूअ में नीयत का सही व दुरुस्त रखना है। इनमें से हर एक का क्याम, बगैर दूसरे के मुहाल व नामुम्किन है। इस लिए कि ज़ाहिरे हाल, बातिनी हकीकत के बगैर नेफाक है इसी तरह बातिन बगैर ज़ाहिर के ज़न्देका और बे-दीनी है। ज़ाहिरे शरीअत, बगै़र बातिन के नाक्सि व नामुकम्मल है। और बातिन बगैर ज़ाहिर के हवा व हवस। (काशफूल महज़ूब, पेज 41 हिंदी)
बातिनी इल्म हासिल करने की वजह
बातिनी इल्म : ये इसलिये ताकि बन्दा रब की इबादत कर सके और इस इबादत को तमाम ऐबों और बुराईयों से महफूज़ रख सके क्यूंकि बन्दे पर लाज़िम है कि पहले अपने मा’बूद को पहचाने और फिर उस की इबादत में मस्रूफ हो, और बन्दा अपने मा’ बूंदे बरहक़ की इबादत कर ही कैसे सकता है जब की उसे येह मा ‘लूम न हो कि उस मा’ बूद के नाम क्या हैं, उस की सिफतें क्या हैं और कौन सी चीजें उस की शान के लाइक़ हैं और कौन सी बातें उस की शान के ख़िलाफ़ हैं। बसा अवकात ऐसा होता है कि जहालत की बिना पर बन्दा अपने मा’ बूदे बरहक के लिये ऐसी सिफ़तों पर ए’ तिकाद रखता है जो क़तअन उस की शान के लाइक नहीं होतीं और इस सूए ए’तिक़ादी के बाइस इबादत जाएअ हो जाती है, इस अजीम खतरे की पूरी तरह शरह किताब “इहयाउल उलूम” के बाब सूए ख़ातिमा में मौजूद है।
इल्मे तरीक़त के अरकानः-
इल्मे तरीक़त यानी बातिने इल्मे उसूल के तीन रुक्न हैं।
(1) जाते बारी ﷻ और उसकी वहदानीयत और उसके गैर से मुशाबेहत की तन्ज़ीह व नफ़ी का इल्म।
(2) सिफाते बारी ﷻ और उसके अहकाम का इल्म।
(3) अफ्आले बारी ﷻ यानी तकदीरे इलाही उसकी हिकमत का इल्म
इल्मे शरीअत के अरकानः-
इल्मे शरीअत यानी ज़ाहिर इल्मे उसूल के भी तीन रुक्न हैं।
(1) किताब यानी कुरआने करीम इजमाये उम्मत।
(2) इत्तबाये रसूल यानी सुत्रत
(3) दलाइल व बराहीनः- अल्लाह ﷻ की ज़ात व सिफात और उसके अफ्आल के इस्बात के इल्म में खुद उसी का इरशाद, दलील व बुरहान है
फ़रमान है : जान लो ! यकीनन अल्लाह के सिवा कोई मअबूद नहीं।
फ़रमान है : जान लो ! यकीनन अल्लाह ही तुम्हारा मौला और कारसाज़ है।
फ़रमान है : क्या तुमने अपने रब की कुद़रत की तरफ़ नज़र नहीं की कि उसने साया कैसा दराज़ किया।
फ़रमान है : क्या ऊँट की तरफ नज़र नहीं करते कि कैसा पैदा किया गया।
इस किस्म की बकसरत आयाते कुरआनिया हैं जिनमें अल्लाह ﷻ के अफ्आल पर गौर करने से उसके सिफाते फाभेलिया की मअरेफ़त हासिल होती है।
चार खास बातों का इल्म
हातिमुल-असम रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि जब से मुझे चार बातों का इल्म हासिल हुआ है मैं आलम के तमाम उलूम से बे-परवा हो गया हूं। लोगों ने दरयाफ्त किया वह कौन-सी चार बातों का इल्म है? उन्होंने फरमाया एक यह कि मैंने जान लिया है कि मेरा रिज़्क़ मुकद्दर हो चुका है जिसमें न कमी हो सकती है न ज़्यादती । लिहाज़ा ज़्यादा की ख़्वाहिश से बे-नियाज़ हूं। और दूसरी यह कि मैंने जान लिया है कि खुदा का मुझ पर हक़ है जिसे मेरे सिवा कोई दूसरा अदा नहीं कर सकता लिहाज़ा मैं उसकी अदाएगी में मशगूल हूं। और तीसरी यह कि मेरा कोई तालिब है यानी मौत मेरी ख़्वास्तगार है जिससे मैं राहे फेरार इख़्तियार कर नहीं सकता। लिहाज़ा मैंने उसे पहचान लिया है और चौथी यह कि मैंने जान लिया है कि मेरा कोई मालिक है जो हमा वक़्त मुझे देख रहा है मैं उससे शर्म करता हूं और नाफमानियों से बाज़ रहता हूं। बन्दा जब इससे बाख़बर हो जाता है कि अल्लाह ﷻ उसे देख रहा है तो वह कोई काम ऐसा नहीं करता जिसकी वजह से कियामत के दिन उसे शरमसार होना पड़े।