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Huqooq ul Nabi ﷺ

Nabi ﷺ Per Iman

ईमान बिरर्रसुल ﷺ

ईमान बिर्रुसुल से मुराद

ईमान बिर्रुसुल से मुराद येह है कि तमाम रसूलों पर ईमान लाना ज़रूरी है कि जितने अम्बिया व मुरसलीन दुनिया में तशरीफ लाए वोह सब अल्लाह के मुक़द्दस बन्दे और उसके बरगुज़ीदा पैग़म्बर हैं वोह सब सच्चे और वोह जो कुछ अल्लाह त’आला की तरफ से लाए सब हक़ है और उन सब नबियों और रसूलों ने अपने फराइज़े नुबुव्वत को कमा हक़्क़हू अदा किया। ख़ास कर हमारे नबी हुज़ूरे अक़दस की नुबुव्वत, रिसालत, ज़ात व सिफात पर ईमान लाना यानी मुहम्मद रसूलुल्लाह स़ल्लल्लाहु त’आला अलैहि व सल्लम को सच्चा जानना और हुज़ूर की हक़्क़ानियत (ज़ात व सिफात) को सिद्क़ दिल से मानना और जो कुछ आप अल्लाह त’आला की तरफ से लाए हैं सच्चे दिल से उसको सच्चा मानना हर हर उम्मती पर फर्ज़े ऐन है। हर मोमिन का इस पर ईमान है कि बग़ैर रसूल ﷺ पर ईमान लाए हरगिज़ हरगिज़ कोई मुसलमान नहीं हो सकता। क़ुरआन में ख़ुदावंदे आलम जल्ला जलालुहू का फ़रमान है किः-

अल्लाह फ़रमाता है : (तर्जुमा) ऐ लोगों तुम्हारे पास येह रसूल ﷺ हक़ के साथ तुम्हारे रब की तरफ़ से तशरीफ़ लाए तो ईमान लाओ अपने भले को। (सूरह निसा, आयत न. 170)

तर्जुमा : ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल ﷺ बे पढ़े ग़ैब बताने वाले पर (सूरह आराफ, आयत न. 158)

तर्जुमा : जो अल्लाह और उसके रसूल ﷺ पर ईमान न लाया तो यक़ीनन हमने काफ़िरों के लिए भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है। इस आयत ने बिल्कुल खुल्लम-खुल्ला और सफाई के साथ फैसला कर दिया कि जो लोग रसूल ﷺ की रिसालत पर ईमान नहीं लाएंगे वोह अगरचे ख़ुदा की तौह़ीद का उम्र भर डंका बजाते रहें मगर वोह काफ़िर और जहन्नमी ही रहेंगे। इसलिए इस्लाम का बुनियादी कलिमा यानी कलिमा-ए-तय्यबाः ला इलाहा इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह है। यानी मुसलमान होने के लिए ख़ुदा की तौह़ीद और रसूल ﷺ की रिसालत दोनों पर ईमान लाना ज़रूरी है।

कामिल ईमान की अलामत
हज़रते उमामा (रदीअल्लाहु त’आला अन्हु) से रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया कि जिस शख़्स ने अल्लाह त’आला के लिए दिया और अल्लाह त’आला के लिये रोका और जिसने अल्लाह ही के लिये मुहब्बत की अल्लाह ही के लिये दुश्मनी की तो उसका ईमान मुकम्मल हो गया। (अबू दाऊद-सुनन-6/555-ह-4681) 

हज़रते अ़ब्दुल्लाह बिन हिशाम (रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि हज़रते उ़मर (रदीअल्लाहु त’आला अन्हु) ने हुज़ूर ﷺ से अर्ज़ किया कि या रसूल ﷺ मेरी जान के अलावा आप मुझे हर चीज से ज़्यादा महबूब हैं तो आप ﷺ ने फ़रमाया नहीं मुझे उस ज़ात की क़सम जिसके कब्ज़ ए क़ुदरत में मेरी जान है कि ईमान उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हो सकता जब तक मेरी ज़ात तुम्हें अपनी जान से भी ज़्यादा महबूब न हो जाए तो हज़रते उ़मर (रदीअल्लाहु त’आला अन्हु) ने अर्ज़ किया कि अल्लाह की क़सम आप मुझे मेरी जान से भी ज़्यादा महबूब और प्यारे हैं तो आपﷺ ने फ़रमाया ऐ उ़मर अब तेरा ईमान मुकम्मल हुआ। (बुख़ारी – सही – 6/143-ह-6632)

ईमान लाने वाले मेरे भाई हैं
हज़रते अनस (रदीअल्लाहु त’आला अन्हु) से रिवायत है कि रसूले अकरम ﷺ ने फ़रमाया कि मैंने येह चाहा कि मैं अपने भाइयों से मिलूँ तो सहाबा किराम (रदीअल्लाहु त’आला अन्हुम) ने अर्ज़ किया या रसूल ﷺ क्या हम आपके भाई नहीं हैं तो आप (सल्लल्लाहु त’आला अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि तुम मेरे सहाबा हो लेकिन मेरे भाई वो होंगे जो मुझ पर ईमान लाएंगे हालाँकि उन्होंने मुझे देखा न होगा । ( मुस्नद अहमद – 5/476 हदीस-12607)

बग़ैर देखे ईमान लाने का हिसाब
हज़रते अबू उमामा (रदीअल्लाहु त’आला अन्हु) से रिवायत है कि हुज़ूर नबी ﷺ ने फ़रमाया ख़ुशख़बरी और मुबारक बाद हो उसके लिए कि जिसने मुझे देखा और मुझ पर ईमान लाया और सात बार ख़ुशख़बरी और मुबारक बाद हो उसके लिए कि जिसने मुझे नहीं देखा और मुझ पर ईमान लाया । (इब्ने हिब्बान-सही-8/401 – ह-7233)

1. हुज़ूर के इल्मे ग़ैब पर ईमान 

मुतलक़न इल्मे ग़ैब का मुनकिर (इनकार करने वाला) काफ़िर है कि वोह सिरे ही से नुबुव्वत का मुनकिर है, 

नबुव्वत कहते ही इल्मे ग़ैब देने को।

इमाम क़ाज़ी अयाज़ मालिकी रहमतुल्लाह त’आला अलैह शिफा शरीफ में फरमाते हैंः नुबुव्वत ग़ैब पर मुत्तला होने का नाम है (अल मलफूज़ जिल्द 3, पेज 8)

आयाते क़ुरआनिया से हुज़ूर के इल्मे ग़ैब का सुबूत

क़ुरआने अ़ज़ीम फ़रमाता है
ऐ महबूब! अगर अल्लाह का फ़ज़्ल व रहमत तुम पर न होता  तो उनमें के कुछ लोग येह चाहते कि तुम्हें धोखा दे दें और वोह अपने ही आपको बहका रहे हैं और तुम्हारा कुछ न बिगाड़ेंगे और अल्लाह ने तुम पर किताब और हिकमत (बोध) उतारी और तुम्हें सिखा दिया जो कुछ तुम न जानते थे  और  अल्लाह का तुम पर बड़ा फ़ज़्ल है  (सूरह निसा 113) तर्जुमा : ‘ऐ आम लोगों! अल्लाह इसलिए नहीं कि तुम्हें ग़ैब पर मुत्तला फरमा दे हाँ अपने रुसुल से चुन लेता है जिसे चाहे ।

अल्लाह त’आला आ़लिमुल-ग़ुयूब है तो अपने ग़ैब पर किसी को मुत्तला नहीं फ़रमाता मगर अपने पसन्दीदा रसूलों को।

सिर्फ इज़हार ही नहीं बल्कि रसूल ﷺ को इल्मे गैब पर मुत्तला फ़रमा दिया। 

और क़ुरआने करीम में इरशाद फ़रमाता है : मेरा महबूब ग़ैब पर बख़ील नहीं। (अल-तकवीर, 24 )

जिसमें इस्तेअदाद पाते हैं उसे बताते भी हैं, और ज़ाहिर है कि बख़ील वोह कि जिसके पास माल हो और सर्फ़ न करे, येह कि जिसके पास माल ही नहीं क्या बख़ील कहा जाएगा और यहाँ बख़ील की नफ़ी की गई तो जब तक कोई चीज़ सर्फ़ की न हो क्या मफ़ाद हुआ, लिहाज़ा मालूम हुआ कि हुज़ूर ग़ैब पर मुत्तला हैं और अपने ग़ुलामों को उस पर इत्तिला बख़्शते हैं। और फ़रमाता है 

हमनें तुम पर येह किताब हर शय का रौशन बयान कर देने के लिए उतारी (अल-बहल 89) 

अल्लाह व रसूल ﷺ की महब्बत पैदा होने का ज़रीआ

तिलावते क़ुरआन मजीद और दरूद शरीफ़ की कसरत और नाअत शरीफ के सही अश्आर ख़ुश इल्हानों से बकसरत सुने और अल्लाह व रसूल ﷺ की नेअमतों और रहमतों में जो उस पर हैं ग़ौर करें तो इन चीज़ों से दिल में ख़ुदा व रसूल ﷺ  सल्लल्लाहु त’आला अलैहि व सल्लम की मुहब्बत पैदा होगी। (अल-मल्फूज़ अव्वल, स 115 ) 

हुज़ूर पर हर चीज़ रौशन हो गई

हदीस में है जिसे इमाम तिर्मिज़ी वग़ैरह ने दस सहाबा से रिवायत किया कि सहाबा ए किराम फ़रमाते हैं कि एक रोज़ हम सुबह को नमाज़े फ़ज्र के लिए मस्जिदे नबवी में हाज़िर हुए और हुज़ूर की तशरीफ़ आवरी में देर हुई, यानी क़रीब था कि आफ़ताब तुलूअ कर आए इतने में हुज़ूर तशरीफ़ फरमा हुए और नमाज़ पढ़ाई, फिर सहाबा से मुख़ातिब होकर फ़रमाया कि तुम जानते हो क्यों देर हुई। सबने अर्ज़ की अल्लाह व रसूल ﷺ ख़ूब जानते हैं। इरशाद फ़रमाया मेरा रब सबसे अच्छी तजल्ली में मेरे पास तशरीफ लाया। यानी मैं एक दूसरी नमाज़ में मशग़ूल था। उस नमाज़ में अब्द दरगाहे माबूद में हाज़िर होता है और वहाँ खुद ही माबूद की अब्द पर तजल्ली हुई। उसने फ़रमाया ऐ मुहम्मद! (सल्लल्लाहु त’आला अलैहि व सल्लम) येह फ़रिश्ते किस बात में मुख़ासमा और मुवाहात करते हैं? मैंने अर्ज़ की कि मैं बे तेरे बताए क्या जानूँ?

“तो रब्बुल इज़्ज़त ने अपना दस्ते क़ुदरत मेरे शानों के दरमियान रखा और उसकी ठंडक मैंने अपने सीने में पाई और मेरे सामने हर चीज़ रौशन हो गई और मैंने पहचान ली”। (तिर्मिज़ी)

सिर्फ़ इसी पर इक्तिफ़ा न फ़रमाया कि किसी वहाबी साहब को येह कहने की गुंजाइश न रहे कि “कुल्लु शैइन“ से मुराद हर शय मुतअल्लिक ब-शरअ है, बल्कि एक रिवायत में फ़रमायाः

मैंने जान लिया जो कुछ आसमान और ज़मीन में है।
और दूसरी रिवायत में फ़रमाया और मैंने जान लिया जो कुछ मशरिक़ व मग़रिब तक है।

यह तीनों रिवायतें सही हैं तो तीनों लफ्ज़ इरशादे अक़दस से साबित हैं, यानी मैंने जान लिया जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, और जो कुछ मशरिक़ से मग़रिब तक है हर चीज़ मुझ पर रौशन हो गई और मैंने पहचान लिया।

और रौशन होने के साथ पहचान लेना इसलिए फ़रमाया कि कभी शय मारूफ होती है, पेशे नज़र नहीं, और कभी शय पेशे नज़र होती है और मारूफ नहीं, जैसे हज़ार आदमियों की मज्लिस को छत पर से देखो वह सब तुम्हारे पेशे नज़र होंगे, मगर उनमें बहुत को पहचानते न होंगे, इसलिए इरशाद फ़रमाया कि तमाम अशिया ए आलम हमारे पेशे नज़र भी हो गई और हमने पहचान भी लिया कि उनमें न कोई हमारी निगाह से बाहर रही न इल्म से ख़ारिज। मुसलमान देखें नुसूस में बिला ज़रूरत तावील व तख़्सीस बातिल है, अल्लाह अज़्ज़ व जल्ल ने फरमाया हर चीज़ का रौशन बयान कर देने को यह किताब हमनें तुम पर उतारी,

नबी ﷺ ने फरमाया हर चीज़ मुझ पर रौशन हो गई और मैंने पहचान ली।

तो बिला शुबह यह रुयत व मारिफ़त जमीं मक्नूनाते क़दम व मक्तूबाते लौह को शामिल है जिसमें सब माकाना वमायकून रौज़े अव्वल से रौज़े आख़िरत तक व जुमला ख़्वातिर व जमाइर सब कुछ दाख़िल। रसूल ﷺ फ़रमाते हैं बेशक अल्लाह ने मेरे सामने दुनिया उठा ली है तो मैं इसे और इसमें जो कुछ क़यामत तक होने वाला है सबको ऐसे देख रहा हूँ जैसे अपनी इस हथेली को। (कंज़ुल उम्माल )

और हुज़ूर के सदक़ा में अल्लाह त’आला ने हुज़ूर के ग़ुलामों को येह मरतबा इनायत फरमायाः  एक बुज़ुर्ग फ़रमाते हैं वोह मर्द नहीं जो तमाम दुनिया को मिस्ल हथेली के न देखे, 

2 हुज़ूर के तवस्सुल पर ईमान

अल्लाह का फ़रमान (तर्जुमा) : अगर जब वोह अपनी जानों पर ज़ुल्म करें तो ऐ महबूब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों और फिर अल्लाह से माफ़ी चाहें और रसूलﷺ उनकी शफ़ाअत फ़रमाए तो ज़रूर अल्लाह को बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पाएं (सूरह निसा, आयत न. 64)

बारगाहे ख़ुदावंदी में रसूल ﷺ का वसीला

हुज़ूरे अक़दस का बारगाहे इलाही में वसीला बना कर दुआ मांगना जाइज़ बल्कि मुस्तह़ब है। इसीको तवस्सुल व इस्तिग़ासा व तशफ्फुअ वग़ैरह मुख़्तलिफ़ नामों के साथ बोला जाता है। हुज़ूर को ख़ुदा के दरबार में वसीला बनाना येह हज़राते अंबिया व मुरसलीन की सुन्नत और सलफ़े सालिहीन का अच्छा तरीक़ा है। येह तवस्सुल (वसीला) हुज़ूर की पैदाइश से पहले आपकी ज़ाहिरी ज़िंदगी में और आपकी वफाते अक़दस के बाद तीनों हालतों में साबित है। चुनान्चे हम यहाँ तीनों हालतों में आप से तवस्सुल करने की चन्द मिसालें निहायत ही इख़्तिसार के तौर पर ज़िक्र करते हैं।

पैदाइश से पहले वसीले का सबूत

रिवायत है कि हज़रते आदम अलैहिस्सलाम ने दुनिया में आ कर बारी त’आला से यूँ दुआ मांगी कि तर्जुमाः ऐ मेरे परवरदिगार! में तुझ से मुहम्मद के वसीले से सवाल करता हूँ कि तू मुझे माफ़ फ़रमा दे। अल्लाह त’आला ने इरशाद फ़रमाया कि ऐ आदम! तुमने मुहम्मद को किस तरह पहचाना। हालांकि मैंने अभी तक उनको पैदा भी नहीं फ़रमाया। हज़रते आदम अलैहिस्सलाम ने अर्ज़ किया कि ऐ मेरे परवरदिगार ! जब तूने मुझे पैदा फ़रमा कर मेरे बदन में रूह फूँकी तो मैंने सर उठा कर देखा कि अर्शे मजीद के पायों पर ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह लिखा हुआ है। उससे मैंने समझ लिया कि तूने जिसके नाम को अपने नाम के साथ मिला कर अर्श पर तहरीर कराया है वह यक़ीनन तेरा सबसे बड़ा महबूब होगा। अल्लाह त’आला ने फ़रमाया कि ऐ आदम! (अलैहिस्सलाम) बेशक! तुमने सच कहा । वो मेरे नज़दीक तमाम मख्लूक से ज़्यादा महबूब हैं। चूँकि तुमने उनको मेरे दरबार में वसीला बनाया है इसलिए मैंने तुमको माफ़ कर दिया। सुन लो कि अगर मुहम्मद न होते तो मैं तुमको पैदा न करता । इस हदीस को इमाम बैहक़ी ने रिवायत फ़रमाया है। (रूहुल बयान सूरह अहज़ाब, सफ़ह-230)

नबी ﷺ के वसीले से जंग जीतना

हुज़ूर नबी ए करीम ﷺ की तशरीफ आवरी से पहले यहूद का यह तरीक़ा था कि जब कभी काफ़िरों और मुशरिकों से जंग होती थी और उन्हें ऐसा महसूस होता कि वह जंग हार जाएंगे तो उस वक़्त तौरात को सामने रखते और वह जगह खोल कर, जहाँ हुज़ूर नबी ए करीम ﷺ की सिफात और कमालात का ज़िक्र होता, वहाँ हाथ रखते और यूँ दुआ मागंतेः ऐ ख़ुदा हम तुझ से तेरे उस नबी का वास्ता देकर अर्ज़ करते हैं, जिस की बेअसत (यानी आखिरी नबी का आने) का तूने हमसे वादा किया है, आज हमें अपने दुशमनों पर फतह दे। अल्लाह त’आला हुज़ूर ﷺ के सदके में उन्हें फतह (जीत) देता। (क्या आप जानते है,19 )

ज़ाहिरी हयाते अक़दस में वसीले का सबूत

हज़राते सहाबा-ए-किराम आपकी मुक़द्दस मजलिस में हाज़िर होकर जिस एक नाबीना बारगाहे अक़दस में हाज़िर हुआ अर्ज़ किया कि आप अल्लाह त’आला से दुआ कर दें कि वह मुझे आराम बख़्शे । आपने फ़रमाया कि अगर तू चाहे तो मैं दुआ कर देता हूँ। अगर तू चाहे तो सब्र कर। सब्र तेरे हक़ में अच्छा है जब उसने दुआ के लिए इसरार किया तो आपने उसको हुक्म दिया कि तुम अच्छी तरह वुज़ू करके यूँ दुआ मांगो कि

(तर्जुमा) या अल्लाह ! मैं तेरी बारगाह में सवाल करता हूँ और तेरे नबी -ए- रहमत का वसीला पेश करता हूँ या मुहम्मद मैंने अपने परवरदिगार की बारगाह में आपका वसीला पेश किया है। अपनी इस ज़रूरत में ताकि वोह पूरी हो जाए या अल्लाह तू मेरे हक़ में हुज़ूर की शफाअत क़ुबूल फ़रमा।

इस हदीस को तिर्मिज़ी व निसाई ने रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने फ़रमाया कि इमाम बैहक़ी व तबरानी ने भी इस हदीस को सही कहा है। मगर इमाम बैहक़ी ने इतना और कहा है कि उस नाबीना ने ऐसा किया और उसकी आँखें अच्छी हो गई। (वफ़ाउल वफ़ा, जिल्द-2, सफा 420 )

वफ़ाते अक़दस के बाद वसीला

वफ़ाते अक़दस के बाद भी हज़राते सहाबा-ए-किराम अपनी ज़रूरतों और मुसीबतों के वक़्त हुज़ूर को अपनी दुआओं में वसीला बनाया करते थे। बल्कि आपको पुकार कर आपसे मदद माँगा करते थे।

हिकायत: गुनाहों की माफ़ी के लिए नबी ﷺ का वसीला

सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की वफ़ाते शरीफ़ के बाद एक अरब देहाती आपके मुबारक रौज़े पर हाज़िर हुआ और रोज़ा शरीफ़ की पाक मिट्टी अपने सर पर डाली और अर्ज़ करने लगा, या रसूल ﷺ, जो आपने फ़रमाया हमने सुना और जो आप पर उतरा उसमें यह आयत भी है “वलौ अन्नहुम इज़ ज़लमू”. मैंने बेशक अपनी जान पर ज़ुल्म किया और मैं आपके हुज़ूर में अल्लाह से अपने गुनाह की बख़्शिश चाहने हाज़िर हुआ कि मेरे रब से मेरे गुनाह की बख़्शिश कराईये। इस पर क़ब्र शरीफ़ से आवाज़ आई कि तेरी बख़्शिश की गई।

इससे कुछ मसअले मालूम हुए। अल्लाह त’आला की बारगाह में हाजत अर्ज़ करने के लिये उसके प्यारों को वसीला बनाना कामयाबी का ज़रीआ है। क़ब्र पर हाजत के लिये जाना भी “जाऊका” में दाख़िल है। (ख़ज़ाइनुल इरफान)

बारिश के लिए इस्तिग़ासा (मदद मांगना) : 

हज़रते अमीरूल – मोमिनीन फारूक़े आज़म के दौरे ख़िलाफ़त में सूखा पड़ गया तो हज़रते बिलाल बिन हारिस सहाबी ए रसूलﷺ की क़ब्रे अनवर पर हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि या रसूलﷺ अपनी उम्मत के लिए बारिश की दुआ फ़रमाएँ। वोह हलाक हो रही है। रसूलﷺ ने ख़्वाब में उनसे इरशाद फ़रमाया कि तुम हज़रते उमर के पास जाकर मेरा सलाम कहो। ख़ुशख़बरी दे दो कि बारिश होगी। येह भी कह दो कि वोह नर्मी इख़्तियार करें। उस शख़्स ने बारगाहे ख़िलाफ़त में हाज़िर होकर ख़बर दी। हज़रते उ़मर येह सुन कर रोए । फिर कहा ऐ रब ! मैं कोताही नहीं करता मगर उसी चीज़ में कि जिससे मैं आजिज़ हूँ।

जीत के लिए आपﷺ का वसीलाः 

अमीरुल मोमिनीन हज़रते फारूक़े आज़म ने हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त के हाथ अपना ख़त अमीरे लश्कर हज़रते अबू-उबैदा बिन-जर्राह के नाम मक़ामे ’यरमूक’ में भेजा। सलामती की दुआ मांगी। हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त जब मस्जिदे नबवी से बाहर आए तो उनको ख़याल आया कि मुझसे बड़ी गलती हुई कि मैं ने रोज़- -ए-अकदस पर सलाम नहीं अर्ज़ किया। चुनान्चे वापस लौट कर जब क़ब्रे अनवर के पास हाज़िर हुए तो वहाँ हज़रते आइशा हज़रते अब्बास व हज़रते अली व हज़रते इमाम हसन व हज़रते इमाम हुसैन हाज़िर थे। हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त ने उन हज़रात से जंगे यरमूक में इस्लाम की फतह के लिए दुआ की दरख़्वास्त की तो हज़रते अली व हज़रते अब्बास ने हाथ उठा कर यूँ दुआ मांगी कि :- (वफ़ा उल वफ़ा)

“या अल्लाह ! हम उस नबी ए मुस्तफा व रसूल ए मुज्तबा ﷺ कि जिनके वसीले से हज़रते आदम अलैहिस्सलाम की दुआ क़ुबूल हो गई और ख़ुदा ने उनको माफ़ फरमा दिया, उन्हीं के वसीले से दुआ करते हैं कि तू हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त पर उसका रास्ता आसान कर दे। दूर को नज़दीक कर दे। अपने नबी ﷺ के अस्हाब की मदद फ़रमा कर उनको कामयाबी अता फ़रमा दे।

उसके बाद हज़रते अली ने हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त से फ़रमाया कि अब आप जाइए। अल्लाह त’आला हज़रते उमर व अब्बास व अली व हसन व हुसैन व अज़्वाजे नबीﷺ की दुआ को रद्द नहीं फ़रमाएगा जबकि उन लोगों ने उसकी बारगाह में उस नबी ﷺ का वसीला पकड़ा है जो अकरमुल ख़ल्क़ हैं। (फतहुश्शाम जिल्द 1 सफा -105) 

3 इख़्तियारे नबीﷺ पर ईमान 

क़ुरआन में अल्लाह का फ़रमान (तर्जुमा) : येह नबी ﷺ मुसलमानों का उनकी जान से ज़्यादा मालिक है (सूरह अहज़ाब, आयत न. 6)

तफ़्सीर : दुनिया और दीन के तमाम मामलों में और नबी ﷺ का हुक्म उन पर लागू और नबीﷺ की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी और नबीﷺ के हुक्म के मुक़ाबले में नफ़्स की ख़्वाहिश का तर्क हर हाल में जरुरी है।

हुज़ूर के चाहने से क़िब्ला बदल गया

क़ुरआन में अल्लाह का फ़रमान है ( ्तर्जुमा) : (ऐ नबी ﷺ) हम देख रहे हैं बार बार तुम्हारा आसमान की तरफ़ मुॅंह करना तो ज़रूर हम तुम्हें फेर देंगे उस क़िबले की तरफ़ जिसमें तुम्हारी ख़ुशी है अभी अपना मुंह फेर दो मस्जिदे हराम की तरफ़, और ऐ मुसलमानों तुम जहां कहीं हो अपना मुॅंह उसी की तरफ़ करो और वो जिन्हें किताब मिली है ज़रूर जानते है कि येह उनके रब की तरफ़ से हक़ है और अल्लाह उनके कौतुकों से बेख़बर नहीं। (सूरह बक़रह, आयत न. 144)

पहले मुसलमानों का क़िब्ला काअबा नहीं था बल्कि बैतुल मुक़द्दस क़िब्ला था। नबीﷺ को बैतुल मुक़द्दस की तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया गया था और आपﷺ रब त’आला के हुक्म की पैरवी करते हुए बैतुल मुक़द्दस की तरफ मुँह मुबारक करके नमाज़ अदा करते रहे अलबत्ता हुज़ूरﷺ की चाहत येह थी कि कअबा को मुसलमानों का क़िब्ला बना दिया जाए और इसकी वजह येह नहीं थी कि आपको बैतुल मुक़द्दस का क़िब्ला बनाया जाना पसंद नहीं था बल्कि इसकी कई वजह थीं। एक येह कि ख़ाना-ए-काअबा हज़रत सय्यिदुना इब्राहीम अलैहिस्सलाम व उनके अलावा कसीर अम्बिया ए किराम (अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम ) का किब्ला था। चुनांचा एक दिन हालते नमाज़ में रसूल अकरम ﷺ इस उम्मीद में बार-बार आसमान की तरफ़ देख रहे थे कि अल्लाह के हुक्म से क़िब्ले की तब्दीली का हुक्म आ जाए चुनांचा दौराने नमाज़ यही आयते करीमा नाज़िल हुई (यानी सूरह बक़रह, आयत न. 144)

आग दस्तर ख़्वान को नहीं जला सकी

हज़रत जाबिर रदीअल्लाहु अन्हु के घर सहाबए किराम की दावत थी। एक कपड़े का दस्तरख़्वान लाया गया जो बहुत मैला था। आप ने वोह दस्तर- ख़्वान भड़कते हुए तन्नूर में डाल दिया। सारा मैल जल गया लेकिन दस्तरख़्वान के कपड़े के तार भी गर्म न हुए। साथियों ने पूछाः ऐ सहाबी ए रसूल, आग में कपड़ा क्यों न जला और इतना साफ कैसे हो गया? हज़रत जाबिर रदीअल्लाहु अन्हु ने फ़रमायाः एक दिन हुज़ूरे अक़दसﷺ ने इस दस्तर ख़्वान से अपना हाथ और मुॅंह पोंछा था, उस दिन से आग इसे नहीं जलाती । (मसनवी शरीफ)

ज़मज़म से भी अफ़ज़ल पानी

औलमा का कहना है कि दुनिया व आख़िरत के तमाम पानियों से अफ़ज़ल और मुक़द्दस वोह पानी है जो हुज़ूरे अक़दस ﷺ की उंगलियों से निकला, यहाँ तक कि येह पानी ज़मज़म से भी अफ़ज़ल है। ( तफ़सीरे नईमी)

सरकार के क़दमों की बरकत से फ़सल दो गुना 

एक बार हुज़ूर शफीउ़ल मुज़निबीन ﷺ हज़रत अनस रदीअल्लाहु अन्हु के बाग़ में तशरीफ़ ले गए। सरकार के क़दमों की बरकत से उनका बाग़ साल में दो बार फ़सल देने लगा। (बुख़ारी शरीफ़) 

4 शफ़ाअते मुस्तफ़ा पर ईमान 

रसूल ﷺ पर ईमान लाने का एक मतलब येह भी है कि येह अक़ीदा रखा जाए कि नबीﷺ उम्मतियों के लिए शफ़ाअत करेंगे लेकिन जिसका अक़ीदा येह हो कि नबी किसी की शफ़ाअत नहीं करेंगे वैसा शख़्स बदअक़ीदा है ऐसे लोग शफ़ाअते मुस्तफ़ा से मह़रूम रहेगा और अंजाम येह होगा कि उसे जहन्नम में रहना पड़ेगा।

हदीस 1 (तर्जुमा) : मेरी शफ़ाअत बरोज़े क़यामत हक़ है जो इस पर ईमान न लाएगा इस के क़ाबिल न होगा। (40 हदीसे शफ़ाअत)

हदीस 2 (तर्जुमा) : मेरी शफाअत मेरी उम्मत में उनके लिए है जो कबीरा गुनाह वाले हैं। (40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 13)

हदीस 3ः (तर्जुमा) अबू बक्र अहमद इब्ने अली बग़दादी हज़रते अबू दाऊद रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रावी हुज़र शफीउ़ल मुज़निबीन ﷺ फरमाते हैं :- मेरी शफ़ाअत मेरे गुनाहगार उम्मतियों के लिए है। (40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 13)

अबू दरदा रदीअल्लाहु त’आला अन्हु ने अर्ज़ की अगरचे ज़ानी हो? अगरचे चोर हो? तब फ़रमाया अगरचे ज़ानी हो, अगरचे चोर हो। बरख़िलाफ ख़्वाहिशे अबू दरदा के (यानी जैसा कि अबू दरदा सोच रहे हैं वैसा नहीं बल्कि चोरों और ज़िनाकारों तक के लिए हुज़ूर की शफाअत है) (40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 13)

हदीस (तर्जुमा)  हज़रते अनस रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रावी हुज़ूर शफीउल मुज़निबीन ﷺ फ़रमाते हैं:-  रू-ए-ज़मीन पर जितने पेड़ पत्थर ढेले हैं मैं क़यामत में उन सबसे ज़्यादा आदमियों की शफ़ाअत फरआऊँगा । (40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 14)

5 खत्मे नुबुव्वत पर ईमान 

तमाम उम्मतियों पर हक़ है कि अल्लाह व रसूल के फ़रमान के मुताबिक़ नबी ए करीम ﷺ को आख़री नबी जाने और ख़ातमिय्यत इस माना कर कि आपﷺ के बाद कोई नया नबी अब हरगिज़ पैदा नहीं होगा।

हुज़ूरे अक़दस ﷺ ने फ़रमायाः अल्लाह त’आला ने अपने पास लिख रखा है कि मैं ख़ातिमुल अम्बिया हूँ और मेरा ख़ातिमुन्नबिय्यीन होना ख़ुदा ने उस वक़्त लिख दिया था जब आदम अलैहिस्सलाम मिट्टी और पानी की हालत में थे और में तुम को अपनी इब्तिदाई हालत के बारे में ख़बर देता हूँ। मैं इब्राहीम अलैहिस्सलाम की दुआ हूँ और अपनी मां का वह ख़्वाब हूँ जो मेरी पैदाइश के वक्त उन्हों ने देखा था कि उनके अन्दर से एक नूर निकला था जिससे शाम के महल जगमगा उठे थे। (क्या आप जानते है, पेज 22)

6 हयाते नबी ﷺ बादे वफात पर ईमान

तमाम अंबिया किराम अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम की हयात, हकीकी हिस्सी दुनियवी है।

सही हदीस में है बेशक अल्लाह त’आला ने ज़मीन पर अंबिया अलैहिस्सलातु वस्सलाम के ज़िस्म को खाना हराम फरमा दिया है, तो अल्लाह के नबी ज़िन्दा हैं, रिज़्क दिए जाते हैं। (निसाई )

नबी ﷺ ज़िन्दा है

दूसरी सही हदीस में है अंबिया सब ज़िन्दा हैं अपनी कब्रों में नमाज़ें पढ़ते हैं। (मिश्कात) 

मसला हयाते अंबिया

अंबिया अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम हाले हयात व हाले वफ़ात में हमेशा हर वक्त तैय्यिब व ताहिर हैं। अंबिया ए किराम अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम की मौत यानी उनके अज्सामे तैय्यबा से अरवाहे ताहिरा का जुदा होना सिर्फ़ एक आन के लिए होता है फिर वैसे ही ज़िन्दा हो जाते हैं जैसे हाले हयाते ज़ाहिरी में थे जिस्म व रूह से मअन व लिहाज़ा उनका तरका नहीं बटता न उनके बाद उनकी अज़्वाज से निकाह जाइज़। (फ़ैज़ाने आला हज़रत, 61 )

अंबिया ए किराम अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम को मुर्दा कहना हराम, बल्कि मआज़ल्लाह बतौर तौहीन हो तो सरीह कुफ़्र है, अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ने शोहदा को मुर्दा कहने से मना फ़रमाया। अंबिया अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम की हयात उन से बदरजहा ज़ाइद है शहीद की हयात अहकामे दुनिया में नहीं उसका तरका बढ़ेगा, उसकी बीवी इद्दत के बाद निकाह कर सकेगी, बख़िलाफ अंबिया ए किराम अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम (हाशिया फतावा रज़विय्यह जिल्द अव्वल, सफ़ह, 611)

7 आपﷺ के हाज़िर व नाज़िर होने पर ईमान

शरीअत में हाज़िर व नाज़िर के माना हैं सारी दुनिया को देखना और दूर व नज़दीक की आवाज़ों को सुनना या थोड़े से वक़्त में दुनिया भर की सैर कर लेना और एक आन में रूहानी या जिस्मे मिसाली के साथ सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी पर मदद के लिए पहुंच जाना ।(बुज़ुर्गों के अक़ाइद, पेज 300)

अल्लाह के महबूब बन्दों का हाज़िर व नाज़िर होना हक़ है। हुज़ूर सय्यदे आलम ﷺ और बड़े-बड़े औलमा-ए-किराम व बुज़ुर्गाने दीन का यही अक़ीदा है।  सुबूत मुलाहिज़ा हों।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदीअल्लाहु त’आला अन्हुमा से रिवायत है। उन्होंने कहा कि रसूले अकरमﷺ ने फ़रमाया अल्लाह ने मेरे लिए दुनिया के पर्दे उठा दिए हैं तो मैं दुनिया को और जो कुछ भी उस में कयामत तक होने वाला है सब को ऐसा देखता हूँ जैसे कि अपनी इस हथेली को। (ज़रकानी अलल मवाहिब जि० 7 पे० 204 )

Muhabbate Rasool ﷺ

मुहब्बते रसूल ﷺ

मुहब्बते रसूल का शरई हुक्म
ईमान क़बूल करने के बाद हर मोमिन पर हुजूरे अक़दस का सबसे ज्यादा हक़ आप से मुहब्बत करना है क्योंकि मुहब्बते रसूल ही ईमान जान है बाकी ईमानी खसलते आज़ा के मानिंद है जबकि कोई भी ज़ाहिरी अमल इमान का हिस्सा नहीं इसी लिए अल्लाह ﷻ ने अपने बंदों को आप से सबसे ज्यादा मुहब्बत करने का हुक्म दिया है और नेक अमल तो ईमान के बाद करने का हुक़्म हुआ है। चुनांचे इरशादे रब्बानी है:

(तर्जमाः “तुम फ़रमाओ अगर तुम्हारे बाप तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी औरतें और तुम्हारा कुंबा, तुम्हारी कमाई के माल और वह सौदा जिस के नुकसान का तुम्हें डर है और तुम्हारे पसंद का मकान अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में लड़ने से ज़्यादा प्यारी हों तो रास्ता देखो यहाँ तक कि अल्लाह अपना हुक्म लाए और अल्लाह फासिकों को राह नहीं देता।” ( कंजूल ईमान, सूरह तौबा, आयतः 24)

इस आयते करीमा से वाज़ेह है कि एक मोमिन पर यह फ़र्ज़ है कि वह माँ बाप, भाई बहन, आल व औलाद, कुंबा कबीला, माल व दौलत ग़र्ज़ कि सारी चीज़ों से ज़्यादा आप से मुहब्वत करे यानी किसी दूसरी चीज़ की मुहब्बत अल्लाह व रसूल जल्ल जलालहु व की मुहब्बत पर ग़ालिब न आने पाए, गोया मुहब्बते रसूल ही हासिले ज़िंदगी है यह न हो तो ज़िंदगी का लम्हा लम्हा बेकैफ, सारे मशाग़िल बेसूद और ताआत व इबादात मरदूद, इसी लिए खुद नवीए करीम ने भी अपने मानने वालों को अपनी मुहब्बत की तरगीव दी है। चुनांचे इरशाद हैः

तर्जमाः “तुम में से कोई शख़्स उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि मैं उस के वालिदैन और औलाद और तमाम लोगों से ज़्यादा उसके नज़दीक महबूब न हो जाऊँ।” (बुख़ारी, जिल्द अव्वल, सफाः 7)

यानी ईमान की मज़बूती और अकमल के लिए तमाम चीजों और तमाम मख़लूक़ से ज्यादा अल्लाह के रसूल यानी हमारे नबी से मुहब्बत करने का हुक़्म है।

मुहब्बते रसूल का अक़्ली दलील
ख़्याल रहे हुजूरे अकदस से मुहब्बत का शरई हुक्म तो अपनी जगह पर मुसल्लम है ही इसके अलावा अक़्लन भी हुजू़र मुहब्बत किए जाने का सब से ज़्यादा हक रखते हैं। चुनांचे आप गौर करें तो मालूम होगा मुहब्बत के तीन असबाब होते हैं “हुस्न व जमाल” “जूद व नवाल” “जाह व जलाल” जिस शख़्स के अन्दर इन असबाव में से कोई एक ही सबव मौजूद हो तो लोग उस से मुहब्बत करते हैं। अब आप अगर गौर करें तो हुजू़रे अकदस ख़ूबियों की जामेअ है लिहाज़ा आप की ज़ाते गिरामी इन तीनों ही सब से ज़्यादा मुहब्बत किए जाने के लाइक हैं। नीचे चंद रिवायतें लिखी जाती हैं जिन से साबित होगा कि हुजूरे अक़दसते की मुक़द्दस जाते गिरामी के अन्दर असबाबे मुहब्बत अपनी पूरी जलवा सामानियों के साथ मौजूद हैं।

हज़रत अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त’आला अन्हु फ़रमाते हैं: तर्जमाः मैं ने रसूलुल्लाह से ज्यादा हसीन व खूबसूरत किसी को न देखा।

महब्बत की हक़ीक़त
महब्बत  दिली कैफ़ियत का नाम है। महब्बत नाम है दिलों के जुड़ाव का। महब्बत कहते हैं किसी ज़ात की ख़ूबियों की वजह से उसकी तरफ़ दिल के झुक जाने को। महब्बत करने वाला अपने महबूब (जिससे वोह मुहब्बत करता है) के दिली तौर पर क़रीब होता है और ज़ाहिरी तौर पर भी क़रीब रहना चाहता है, वहीं नफ़रत दूरी का सबब है। मुहिब महबूब को अपना दिल दे देता है नतीजतन उसके दिल पर महबूब का इख़्तियार होता है और वोह अपने महबूब के ताबे होकर उसके कहे पर अमल करता है। इंसान को जिस चीज़ से महब्बत हो जाए उसकी सारी तवज्जोह, तमाम कोशिशें और सारी मेहनत उस चीज़ को पाने के लिए होतीं हैं। अगर येह महब्बत दुनिया से हो जाये तो सारी कोशिशें दुनिया और दुनिया की फ़ानी चीज़ों को हासिल करने की तरफ़ होंगी और अगर यही महब्बत दीन से हो जाए तो उसकी सारी कोशिशें आख़िरत और उख़रवी ने’मतों को हासिल करने के लिए होंगी। अगर महबूब हक़ वाला (अम्बिया, औलिया, औलमा में से) है तो अपने चाहने वाले को अल्लाह की तरफ़ ले जाता है लेकिन अगर महबूब बातिल है तो अपने चाहने वाले को शैतान की तरफ़ ले जाता है। क़ुरआन-ओ-हदीस में जहां भी अल्लाह के लिए महब्बत करने का हुक्म है वहां सिर्फ़ हक़ वालों की तरफ़ इशारा है जैसे अम्बिया, औलिया, शोहदा, सालेहीन, मोमिनीन वग़ैरहुम और जहां अल्लाह के लिए नफ़रत करने (बुग्ज़ रखने) का हुक़्म हुआ वहां सिर्फ़ बातिल और बातिल वालों की तरफ़ इशारा है जैसे नफ़्स ओ शैतान, दुनिया, कुफ़्फ़ार, मुनाफ़िकीन, मुर्तद्दीन और तमाम बदमज़हब। वल्लाहु अ’अलम। (मुसन्निफ़)

महब्बत की अहमियत
अल्लाह के लिए महब्बत, ईमानी खसलत का नाम है। हुक़ूकुल इबाद (बंदों के हक़) की अदाएगी के लिए आपसी महब्बत का होना बहुत ही ज़रूरी है। इसके बग़ैर दूसरे मुसलमानों का हक़ अदा करने का जो हुक्म है उस पर अमल नामुमकिन है। जब कोई किसी से महब्बत करता है तो उसे उसके अंदर खूबियां नज़र आतीं हैं , उसकी ज़रूरत को अपनी ज़रूरत समझता है, उसके लिए रहम के जज़्बात रखता है, उसके लिए वही पसंद करता है जो अपने लिए पसंद करता है। येह तमाम खसलतें ईमानी खसलतें है। इस महब्बत के रहते एक मुसलमान के दिल में दुसरे मुसलमान के लिए हसद, कीना, नफ़रत जैसी बुरी खस्लतें जमा नहीं होंगी, उसकी ज़बान मुसलमान भाई की ग़ीबत, चुग़ली, उसे गाली देने और उसके खिलाफ़ झूठ से महफूज़ रहेगी और उसका हाथ क़त्लो गारत, ख़यानत, लड़ाई झगड़ा जैसे कामों से बचा रहेगा।

मुहब्बत के 2 अकसाम
1. हक़ से मुहब्बत 2 बातिल से मुहब्बत
हक़ से मुहब्बत – अल्लाह की रज़ा के लिए हक़ीक़ी अल्लाह से , अल्लाह के रसूलों से, तमाम अम्बिया व औलिया व मोमिनीन व दीनदारो से मुहब्बत करना। ये मुहब्बत आख़िरत तलबी के लिए खास है अगर्चे दुनियावी जरूरियात भी शामिल हो।

2. बातिल से मुहब्बत – यानी नाफ़सानी मजे के लिए दुनिया, शोहरत, दौलत, ग़ैर महरम औरत का हुसुल के लिए शरीयत के दायरे से हटकर किसी से मुहब्बत करना ये नाज़ायज़ फेल (काम) है। ऐसे लोगों के दिल हक़ वालों की मुहब्बत से महरूम होता है। यही लोग दुनियादार है जिसमे से बहुत सारे काफ़िर व मुशरिक हुए, बहुत मुनाफ़िक़ हुए, बहुत फ़ासिक़ व फ़ाज़ीर हुए।

मूहिब के 2 अकसाम
जानना और मानना चाहिए कि मुहब्बत की 2 किस्में है 1. रश्मि मूहिब (जबानी मुहब्बत का दावेदार) और 2. हक़ीक़ी मूहिब (दिल से मुहब्बत करने वाला)

1. रश्मि मूहिब (जबानी मुहब्बत का दावेदार) : जबानी मुहब्बत सिर्फ झूठा दावा है जो दलील पेश किए बग़ैर हर काफिर, मुर्तद, मुनाफ़िक़ व फ़ासिक़ फ़ाज़ीर और सुल्हकुल्ली के जबान से ज़ाहिर होता है मगर उसके दिल मे बातिल की मुहब्बत छुपी होती है ऐसो लोगों के दिलों में तो खालिस्तन दुनिया की मुहब्बत और नाफ़सानी ख़्वाहिशात का ग़लबा होता है। इस दौर में ऐसे लोगो को मुआशरे में ऐनुल यकीन के साथ देखा जा सकता है जो काफ़ी तादाद में मौजूद है जिसकी तमाम वक़्त, हिम्मत, ताक़त, दौलत, जान व माल सिर्फ बातिल (नफ़्स, शैतान व दुनिया) के तलब में खर्च होते है।
2. हक़ीक़ी मुहब्बत (दिल से मुहब्बत करने वाला) – यानी हक़ वालों से दिली मुहब्बत। जानना चाहिए कि मुहब्बत दो दिलो के बीच एक कैफ़ियत का नाम है जिसका ताअल्लुक जबान से नहीं बल्कि सिर्फ दिल से है हक़ीक़ी मुहब्बत दिल से किया जाता है जिसका अलामत यह है कि तमाम आज़ा महबूब (रसूल ﷺ) की तरफ मुतवज्जो हो और मूहिब कि तमाम कोशिशे, वक़्त, हिम्मत, इताअत, सुन्नत, क़ुव्वत, जान, माल व दौलत सब रसूल ﷺ (महबूब) के फ़रमान के मुताबिक उसी के रज़ा के लिए के ख़र्च होना चाहिए।
हक़ीक़ी मुहब्बत की अलामत यह है कि जो शख़्स किसी से मुहब्बत करता है वह अपने महबूब का मुतीअ व फरमां बरदार होता है लिहाज़ा जो शख़्स मुहब्बते रसूल का दावा करे उस पर हुजूरे अकदस का यह हक बनता है कि वह हुजू़र की मुकम्मल पैरवी करे। यानी आप की सुन्नतों पर अमल करे, आप की बात और सीरत की पैरवी करे। जिन चीज़ों के करने से हुजूर ने मना फरमा दिया है उनके करने से बचे और जिन कामों के करने का हुक्म दिया है उन पर अमल करने में पहल करे और तंगदस्ती व खुशहाली और खुशी व ग़मी ग़र्ज़ कि हर हाल में हुजू़रे अक़दस की ही सीरते तय्यबा को अपनाए।
किसी शायर ने कहा हैः
अगर तेरी मुहब्बत सच्ची होती तो ज़रूर इताअत (पैरवी) करता क्यों कि मूहिब अपने महबूब का फ़रमाबरदार होता है।

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