Huqooqul Ibad
हुकूकुल इबाद (बन्दों के हक़ )

हुक़ूकुल इबाद क्या है?
हुकूकुल इबाद का मतलब बन्दों का हक है। हर इंसान पर दूसरों के कुछ फ़राइज़ और ज़िम्मेदारियाँ आइद होती हैं जिन्हें हुकूकुलएबाद कहा जाता है उन हुकूक का अदा करना हर शख़्स के लिए जरूरी है क्योंकि बा काइदगी से हुकूक की अदायगी में किसी की हक़ तल्फी नहीं होती। हुक़ूक़ुल्लाह और हुक़ूकुल इबाद अदा करना ही अल्लाह की इबादत है जैसा कि क़ुरआन में है इंसान और जिन्न इबदत के लिए पैदा किये गए है इसका मतलब ये भी है हुआ कि इंसान और जिन्न हुक़ूकुल्लाह और हुक़ूकुल इबाद के लिए पैदा किए गये है। मुसलमान को चाहिए की अल्लाह की मुकम्मल इबादत करने के लिए हुक़ूक़ुल्लाह और हुक़ूकुल इबाद की मुकम्मल अदायगी करे।
ज़िन्दगी इबादत के लिए है
अल्लाह फरमाता है : मैंने जिन्न और इंसान को इतने ही के लिये बनाए कि मेरी बन्दगी (इबादत) करें । (कंजुल ईमान, सुरह जरियात, आयत न. 56 )
हुक़ूक अदा करना ही इबादत है
हुक़ूक अदा करने का नाम ही इबादत है जो दो किस्म के है- 1. हुक़ूक़ुल्लाह और 2. हुक़ूक़ूलइबाद
1. हुक़ूक़ुल्लाह (अल्लाह का हक़) : अल्लाह का दिया दुआ हर वो चीज जो बंदों के पास है जैसे इल्म, माल, सेहत, ताकत, जिस्म और जान को अल्लाह के लिए खर्च करना हुक़ूक़ुल्लाह कहलाता है।
2. हुक़ूकुल इबाद (बंदों का हक़) : अल्लाह की रज़ा के लिए अल्लाह के मख़लूको और बंदों का मदद, ख़िदमत और उनसे मुहब्बत करने के लिए जो जो मामलात बंदों से करने का हुक़्म हुआ है उसे पूरा करना हुक़ूकुल इबाद कहलाता यानी बंदों का हक़ अदा करना है।
हुक़ूकुल इबाद की अहमियत
आम तौर पर लोग बन्दों के हुकूक अदा करने की कोई अहमियत नहीं समझते। हालांकि बन्दों के हुकूक का मुआमला बहुत ही अहम, निहायत ही संगीन और बेहद खौफनाक है बल्कि एक हैसियत से देखा जाये तो हुकूकुल्लाह (अल्लाह के हुकूक) से ज्यादा हुकूकुलइबाद (बन्दों के हुकूक) सख्त है। अल्लाह तआला तो अरहमर राहिमीन है। वह अपने फज्ल व करम से अपने बन्दों पर रहम फरमा कर अपने हुकूक माफ फरमा देगा। मगर बन्दों के हुकूक अल्लाह तआला उस वक्त तक नहीं माफ फरमाएगा जब तक बन्दे अपने हुकूक को न माफ करदें। लिहाजा बन्दों के हुकूक को अदा करना या माफ करा लेना बेहद जरूरी है। वरना कियामत में बड़ी मुश्किलों का सामना होगा।
हदीस शरीफ में है कि हुजूरे अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक मर्तबा सहाबए किराम से फरमाया कि क्या तुम लोग जानते हो कि मुफलिस कौन शख्स है? तो सहाबए किराम ने अर्ज किया कि जिस शख्स के पास दिरहम और दूसरे माल व सामान न हो वही मुफलिस है तो हुजूर अलैहिस्सलातु वस्सलाम ने फरमाया कि मेरी उम्मत में आला दर्जे का मुफलिस वह शख्स है कि वह कियामत के दिन नमाज़ रोज़ा, और ज़कात को लेकर मैदाने हश्र में आएगा। मगर उसका यह हाल होगा कि उसने दुनिया में किसी को गाली दी होगी। किसी पर तोहमत लगाई होगी। किसी का माल खा लिया होगा। किसी का खून बहाया होगा। किसी को मारा होगा, तो यह सब हुकूक वाले अपने अपने हुकूक को तलब करेंगे तो अल्लाह तआला उसकी नेकियों में से तमाम हुकूक वालों को उनके हुकूक के बराबर नेकियाँ दिला देगा। अगर उसकी नेकियों से तमाम हुकूक वालों के हुकूक अदा न हो सके बल्कि नेकियाँ ख़त्म हो गई और हुकूक बाकी रह गए तो अल्लाह तआला हुक्म देगा कि तमाम हुकूक वालों के गुनाह उसके सर पर लादो । चुनान्चे सब हक वालों के गुनाहों को यह सर पर उठाएगा। फिर जहन्नम में डाल दिया जाएगा। तो यह शख़्स सबसे बड़ा मुफलिस होगा। (मिश्कात जि. 2 स.435)
इस लिए इन्तेहाई ज़रूरी है कि या तो हुकूक को अदा करो या माफ करा लो। वरना कियामत के दिन हुकूक वाले तुम्हारी सब नेकियों को छीन लेंगे और उनके गुनाहों का बोझ तुम अपने सर पर लेकर जहन्नम में जाओगे ख़ुदा के लिए सोचो कि तुम्हारी बेकसी व बेबसी और मुफलिसी का कियामत में क्या हाल होगा । (जन्नती जेवर, पेज 61, हिंदी)
हुक़ूक अदा करने के दुनियावी फ़ाइदे
इबादतों से आखिरत के फाइदे तो हर शख़्स को मालूम हैं कि अल्लाह तआला अपने इबादत गुज़ार बन्दों को आखिरत में जन्नत की बेशुमार नेअमतें अता फरमाएगा। लेकिन इससे गाफिल न रहो कि इबादत से आखिरत के इलावा इबादत की बरकत से बहुत से दुनियावी फाइदे भी हासिल होते हैं मसलन – (1) रोजी बढ़ना ( 2 ) माल सामन, औलाद हर चीज में बरकत होना (3) बहुत सी दुनियावी तकलीफों और परेशानियों का खत्म हो जाना (4) बहुत सी बलाओं का टल जाना (5) सब के दिलों में उसकी मुहब्बत का पैदा हो जाना (6) नूरे ईमान की वजह से चेहरे का बा-रौनक हो जाना (7) उम्र का बढ़ जाना (8) पैदावार में खैर व बरकत हो जाना (9) बारिश होना (10) हर जगह इज्जत व आबरू मिलना (11) फाका से बचा रहना (12) दिन व दिन नेअमतों में तरक्की होना (13) बहुत सी बीमारियों से शिफा पा जाना (14) आइन्दा आने वाली नसलों को फाइदा पहुंचना (15) शादमानी व मसर्रत और इत्मीनाने कल्ब की जिन्दगी नसीब होना। इनके इलावा और भी बहुत सी दुनियावी फाइदे हैं। जो इबादत की बरकत से हासिल होते हैं। (जन्नती जेवर, पेज 87)
हुक़ूक अदा न करना ही गुनाह है।
हुक़ूक़ुल्लाह और हुक़्कूकुल इबाद के अदायगी का जो हुक़्म क़ुरआन व अहादीस मैं है इसका इंकार करना कुफ़्र है और तर्क करना फिस्क फुज़ूर (सगिरा कबीर गुनाह) है।
गुनाहों की किस्मे और तौबा का तरीका
फ़क़ीह रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते है गुनाहो की 2 किस्मे है
1. इस गुनाह का मामला अल्लाह और बंदों के दर्मियान है यानी हुकुकूल अल्लाह जैसे अल्लाह का हुक्म का नाफरमानी जैसे फ़र्ज़, वाजिब, सुन्नत (नमाज, रोजा, हज, जकात, दरूद, नेकी का हुक्म गुनाहो से रोकना वगैरह जिसे अल्लाह हुक़्म दिया हो उसे अदा न किया लेकिन अल्लाह से रो रो के माफी मांगे और सच्ची तौबा करे तो उसे अल्लाह अपनी रहमत से खुद (डायरेक्ट) माफ कर सकता है
2. इसका मामला बंदे और बंदे के दरमियान है यानी हूककुल इबाद यानी एक बन्दा किसी दूसरे मोमिन बंदे का दिल दुखाया हो, अमानत में खयानत किया हो, हसद, गीब्बत या चुगली, लड़ाई झगड़ा किया हो यानी बंदों का हुक़ूक अदा न किया वगैरह इस गुनाह को अल्लाह तभी माफ करेगा जब बन्दा एक दूसरे से माफी न मांग ले या माफ न कर दे। जैसे इब्लीस को माफी नही मिला क्योंकि वो आदम अलैहिसालाम से हसद रखता था।
हुक़ूक अदा न करने की वजह क्या है
हदीस शरीफ में है दुनिया की मुहब्बत (दुनियादारी) ही तमाम गुनाहों की जड़ है।
वाज़ेह हुआ कि दुनिया ही वो चीज है जो मुसलमान को अल्लाह और उसके रसूल के फ़रमान के मुताबिक अमल पैरा नहीं होने देती है यानी हुक़ूक अदा करने नहीं देती है। नफ़्स और शैतान इसी दुनिया के जरिये मुसलमान को गुमराह करने की ताक में लगे रहते है और कामयाब भी होते है।
फ़रमांबरदारी तीन नीयतों से की जाती है
याद रहे कि इत्तिबाअ व फ़रमांबरदारी तीन तरह यानी पहला मख़लूक का ख़ौफ़, दूसरा दुनियावी लालच, और तीसरा ख़ौफ़े खुदा व मुहब्बते मुस्तफ़ाﷺ की वजह से की जाती है। इसका मतलब ये है कि जो इताअत किसी शख्स या किसी हुकूमत या किसी माली व जानी नुक्सान के डर से की जाती है तो वह इताअत नहीं होती बल्कि मुनाफ़िकत होती है। ऐसे ही वह इताअत जो किसी माली फायदे या दुनियावी बेहतरी के लालच में की जाती है वह इताअत भी इताअत की अस्ल मक़सद से खाली क्योंकि इताअत की अस्ल मक़सद अल्लाह की रज़ा है जो हुक़ूक़ूल इबाद और हुक़ूक़ुल्लाह कि अदायगी है इसके लिए ईमान का होना शर्त है और ईमान के लिए मुहब्बत का होना शर्त है और मुहब्बत से जो काम किया जाता है अल्लाह उसे कुबूल करता है। मुहब्बत की इताअत में सिर्फ खुदा की रज़ा पेशे नज़र होती है। इसलिये इसका बहुत बुलन्द दर्जा है इसलिये इत्तिबाए सुन्नत में हमेशा मुहब्बत को सामने रखना चाहिये। (अदाबे सुन्नत, पेज 8)