GKR Trust

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Author name: Sufi Anwar Raza Qadri

Iman Ki Ahmiyat

ईमान की अहमियत

ईमान की अहमियत

आज मुसलमानों को दीनदार बनकर अपना ईमान मजबूत करने की जरूरत है । ये बात समझ लेना चाहिए कि दुनियादारी के वजह से ईमान व अक़ीदे में कमजोरी और बिगाड़ पैदा हुआ और कमजोर ईमान के सबब ज़हालत व बदअमालियां और मुआशरे में तमाम खराबियां, बुराइयाँ और गुमराहियाँ पैदा हुई है नतीजतन अल्लाह का अजा़ब, दुश्मने इस्लाम (कुफ्फार) के हौसले बढ़े,नफ्स और शैतान गालिब हुए, ज़ालिम बादशाह मुसल्लत किये गए, भगवा लव ट्रेप, मोबलीचिंग और यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड जैसे मामले पैदा हुए, आपसी महब्बत खत्म हुई, बालितो से जिहाद व मुखालफल के बजाय इत्त्तेहाद और मुहब्बत की चाहत है । तमाम हालात का ईलाज यही है कि दुनियादारी को तर्क किया जाए और दीनदारी की चाहत दिल में पैदा करके ईमान, इल्म व अमल में दुरूस्तगी और मज़बूती लाए।

कम ईमान की अहमियत

हज़रते इब्ने मस्ऊद से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया जिस के दिल में राई के दाने के बराबर भी ईमान होगा वोह जहन्नम में दाखिल नहीं होगा और जिस शख़्स के दिल में राई के दाने के बराबर तकब्बुर होगा वोह जन्नत में दाखिल नहीं होगा। (मुस्लिम शरीफ)

भलाई ईमान लाने में है

अल्लाह फ़रमाता है : (तर्जमा कंज़ुल ईमान) : ऐ लोगो तुम्हारे पास ये रसूल हक़ के साथ तुम्हारे रब की तरफ़ से तशरीफ़ लाए तो ईमान लाओ अपने भले को ।  (सूरह निसा, आयत नं. 170)

निजात का ज़रिया ईमान है
हुज़ूर दाता गंज बख़्स हजवेरी की किताब, कशफुल महजूब जो तसव्वुफ़ की किताब है के तीसरा कश्फ मे अहले सुन्नत व जमात का अक़ीदे की मुताबिक लिखते है : “ अज़ाबे इलाही से महफूज़ रहने का ज़रिया ईमान है न कि अमल?अगरचे अमल भी मौजूद हो। जब तक ईमान व अक़ीदा न हो तो अमल फायदा नहीं पहुंचाता। लेकिन जब ईमान मौजूद हो अगरचे नेक अमल मौजूद न हो तो आखि़र में वह निजात पायेगा अगरचे यह बात मुसल्लम है कि निजात यानी बख्शिश अल्लाह के हुक़्म से ही होगी। अगर अल्लाह चाहे तो वह अपने फ़ज़्ल से दरगुज़र फ़रमाये या हुज़ूरे अकरम ﷺ की शफाअत से बख्श दे या चाहे तो उसके जुर्म के मुताबिक सज़ा दे और दोज़ख में भेज दे फिर सजा काटने के बाद बंदे को जन्नत में दाल दिया जाये। लिहाज़ा दुरुस्त ईमान व अक़ीदा वाला अगरचे अमली तौर से मुजरिम होतो हमेशा दोजख में न रहेगा और वोह अमल वाले जो वे बेईमान या बदअकीदा हैं जन्नत में नहीं जायेंगे। इससे मालूम हुआ कि अमल महफूज़ रहने का अस्ल ज़रिया नहीं है। हुजूर अकरम ﷺ का इरशाद है कि-
“तुम में से कोई भी अपने अमल की वजह से हरगिज़ निजात नहीं पायेगा । (काशफुल महज़ूब, पेज 387, हिन्दी)
असल ईमान सिर्फ तस्दीक़ का नाम है यानी जो कुछ अल्लाह जल्ला व आ’ला व रसूल ﷺ ने फ़रमाया उसको दिल से हक़ मानना जैसा कि क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है : (तर्जमा) “ईमान वाले तो वही हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर यक़ीन लाए“ (कन्जुल ईमान, सूरह नूर, आयत न. 62)

ईमान का ताअल्लूक दिल से है

क़ुरआन में है (तर्जुमा) : जो ईमान लाकर अल्लाह का मुनकिर (न मानने वेला) हो सिवा उसके जो मजबूर किया जाए और उसका दिल ईमान पर जमा हुआ हो हाँ वो जो दिल खोलकर काफ़िर हो उनपर अल्लाह का ग़ज़ब है। (सूरह नहल, आयत न. 106)

ईमान के बदौलत ज़न्नत में दाख़ला 

सय्यिदुना अबू हुरैरा रदीअल्लाहो त’आला अनहो फरमाते हैं, हम जंगे हुनैन में थे के सय्यदे आलम ने एक कलीमा गो (कलीमा पढ़ने वाला) शख्स के मुतल्लिक फ़रमाया के ये दोज़खी है और जब जंग शुरू हुई तो वो शख़्स काफ़िरों से ख़ूब लड़ा और ख़ूब जौहर दिखाये, ये मंज़र देख कर एक साहबी ने दरबारे रिसालत में हाज़िर हो कर अर्ज़ किया या रसूलल्लाह! जिस शख्स के मुतल्लिक (संबंधित) आपने फ़रमाया के ये दोजखी है वो तो इस्लाम की तरफ से काफिरों के साथ खूब लड़ रहा है हत्ता के वो जख्मो से चूर हो चूका है, ये सुन कर फ़रमाया: हां! खबरदार! बेशक वो दोज़खी है रसूलुल्लाह का ये इरशाद सुन कर करीब था के कुछ लोग शको शुबा में मुबतला हो जाते, इसी असना (वक़्त) मैं शख़्से मज़कूर को जब ज़ख़्मो की तकलीफ़ ज़्यादा हुई तो उसने ख़ुदकुशी कर ली और हराम मौत मर गया ये देख कर लोग हिम्मत और दरबारे रिसालत में हाज़िर हो कर अर्ज़ किया या रसूलल्लाह अल्लाह त’आला ने आपकी बात को मजबूत साबित कर दिया, ये सुन कर। हुज़ूर ने फ़रमाया: यानी ऐ बिलाल उठ और एलान कर दे के जन्नत में वही जा सकता है जो ईमान वाला हो (सुन्नी अक़ाइद, पेज २)

हिकायत : ईमान जन्नत जाने का ज़रिया
बसरह के क़रीब हज़रत मालिक बिन दीनार रदीयल्लाहु अन्हु ने देखा कि एक जनाज़े को महज़ चार लोग लिये जा रहे थे, उनको पांचवां सहारा देने वाला कोई नहीं है। हजरत मालिक बिन दीनार जा पहुंचे और पूछा भई क्या बात है सिर्फ आप ही लोग हैं पांचवां कोई नहीं? जवाब यह शख्स नेहायत बदकार और गुनहगार था।
हज़रत मालिक बिन दीनार रदियल्लाहु अन्हु ने मिलकर इन चारों के साथ उनकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ी और अपने हाथों से उसे कब्र मे उतारा और तदफ़ीन के बाद क़रीब ही एक दरख़्त के साये में जा लेटे । गुनूदगी छाई और इसकी क़ब्र का सारा माजरा मुलाहज़ा फरमाया दो फरिश्ते 1 क़ब्र शक़ करके अन्दर दाखिल हुए। एक ने दूसरे से कहा इसे अहले जहन्नम में लिखो इसका कोई उज़वे बदन गुनाहों से बरी नहीं। दूसरे ने कहा जरा इसकी आँखों पर गौर करो देखो इसकी अांंखे अमले हराम और बदनज़री से लब्रेज़ हैं, और कान? कान मुनकिरात और हराम सुनने के अरतकाब से भरे हुए हैं, जरा ज़बान पर भी तवज्जोह दो, ज़बान भी हराम ख़ोरी की तलवीष से पुर है और इसके हाथों का क्या हाल है, बदकारी की ज़ुल्मत हाथों में भी पाई जाती है। आखरी हिस्सा बदन पाँव को भी देखो ? इसके तो पाँव भी नापाक रूख पर जाने के ऐब से वज़नी हैं। अब पूछने वाला फरिश्ता खुद मुर्दे के क़रीब आकर उसके दिल पर गौर करने लगा और उसने कहा मगर इसका दिल तो ईमान से भरा हुआ है। इसको मरहूम और नेक लिखना चाहिये क्योंकि अल्लाह त’आला का फज़लों करम इसकी मआसियातों और गलतियों को माफ फरमा देगा।(क़ब्र की पहली रात, पेज 45)

ईमान वालों के दर्जे बुलंद होंगे

अल्लाह ईमान वालों के और उनके जिन को इल्म दिया गया दर्जे बुलन्द फ़रमाएगा। (सूरह मुजादला, आयत न. 11)

ईमान वालों को अल्लाह अज़ाब नहीं देगा

अल्लाह फ़रमाता है : (तर्जमा कंज़ुल ईमान) : अल्लाह तुम्हें अज़ाब देकर क्या करेगा अगर तुम हक़ मानो और ईमान लाओ।(सूरह निसा, आयत 147)

अल्लाह मोमिनों पर फ़ज़्ल करता है

कुरअ़ान में हैः अल्लाह मोमिनों पर फ़ज़्ल करता है।(सूरह इमरान, आयत न. 152)

ईमान वालों को मर्तबा दिया जाएगा?

अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा ) : अगर तुम्हें कोई तकलीफ पहुँची तो वो लोग भी वैसी ही तकलीफ पा चुके हैं और ये दिन है जिनमें हमने लोगों के लिये बारियाँ रखी है और इसलिये कि अल्लाह पहचान करा दे ईमान वालों की, और तुम में से कुछ लोगों को शहादत का मरतबा दे और अल्लाह दोस्त नहीं रखता ज़ालिमों को।(सूरह इमरान, आयत न. 140)

ये उम्मत नमाज़ रोज़े की ज्यादती के वजह से जन्नत में नही जाएगी

फरमाने मुस्तफा ﷺ है, मेरी उम्मत के लोग जन्नत में नमाज़ व रोज़ों की ज्यादती से नहीं बल्कि दिलों की सलामती, सखावत और मुसलमानों पर रहम करने की बदौलत दाखिल होगे। (मुकाशफूतुल क़ुलूब, बाब 18, पेज 130)

ईमान की ताकत सबसे बड़ी है

अल्लाह फ़रमाता है : न सुस्ती करो और न ग़म खाओ तुम्ही ग़ालिब आओगे अगर ईमान रखते हो (कन्जुल ईमान, सूरह इमरान, आयत न 139)

ईमान वालों पर शैतान का क़ाबू नहीं

बेशक उसका (शैतान काकोई क़ाबू उनपर नहीं जो ईमान लाए और अपने रब ही पर भरोसा रखते हैं। (सूरह, नहल, आयत 99)

मोमिन शैतान को रूला देता है

हदीस : जब शैतान किसी बंदा ए मोमिन को फ़ितने में मुब्तला नही कर पाता है तो बहुत रोता हैः हज़रते सफवान अपने एक शैख़ से रिवायत करते हैं, उन्होंने फरमायाः जब कोई मोमिन दुनिया मे शैतान के फ़ितने में मुब्तला हुए बग़ैर मर जाता है तो शैतान इस पर खूब रोता है। (मकाइदुश्शैतान, पेज 37)

शैतान से ईमान वालों की हिफा़ज़त

हदीसः शैतान से अल्लाह पाक के फरिश्ते मो’मिन की हिफा़ज़त करते हैंः हज़रते अबु उमामा रदी़अल्लाहु अ़न्हु से रिवायत है, उन्होंने कहा नबीए पाकﷺ ने इरशाद फ़रमायाः हर मोमिन बंदे के साथ 360 फरिश्ते मुक़र्रर है जो उसकी उन तमाम चीज़ों से हिफा़ज़त करते रहते हैं जिन पर वोह क़ुदरत नही पाता, सात फ़रिश्ते इंसान की उसी तरह हिफाज़त करते हैं जैसे मौसमे सरमा में शहद के प्याले को मक्खियों से बचाया जाता है। अगर वह फरिश्ते ज़ाहिर हो जाएं तो तुम उन्हें हर नरम और सख़्त ज़मीन पर हाथ को फैलाए हुए और मुंह को खोले हुए देखोगे। अगर बंदा एक लम्हे के लिए अपनी हिफाज़त करने पर मुक़र्रर कर दिया जाए तो शयातीन उसे उचक लेंगे। (मकाइदुश्शैतान, पेज 37)

ईमान वालों के लिए अमान

अल्लाह फ़रमाता है : (तर्जमा कंज़ुल ईमान) : वो जो ईमान लाए और अपने ईमान में किसी नाहक़ (बातिल) चीज़ की आमेज़िश (मिलावट) न की उनहीं के लिये अमान (हिफाज़त) है और वही राह पर हैं। (सूरह अन’आम, आयत न. 82)

ईमान वालों के लिए हिदायत

क़ुरआन में है : (तर्जमा) हिदायत और रहमत ईमान वालों के लिये । (सूरह नहल, आयत 64)

ईमान वालों के लिए साबित कदमी

क़ुरआन से ईमान वालों को साबित क़दम करे और हिदायत और बशारत ईमान वालों को। (सूरह नहल, आयत न. 102)

ईमान के बदौलत साबित कदमी

अल्लाह साबित रखता है ईमान वालों को हक़ बात पर दुनिया की ज़िन्दगी में और आख़िरत में। (सूरह इब्राहिम, आयत न. 27)

ईमान वालों के लिए अच्छी ज़िन्दगी 

जो अच्छा काम करे मर्द हो या औरत और हो ईमान वाला तो ज़रूर हम उसे अच्छी ज़िन्दगी जिलाएंगे और ज़रूर उन्हें उनका नेग देंगे जो उनके सब से बेहतर काम के लायक़ हों। (सूरह नहल, आयत न. 97)

ईमान वालों के लिए जन्नत

अल्लाह फ़रमाता है : (तर्जमा कंज़ुल ईमान) : जो ईमान लाए और ताक़त भर अच्छे अमल किये हम किसी पर ताक़त से ज़्यादा बोझ नहीं रखते, वो जन्नत वाले हैं उन्हें उस में हमेशा रहना (सुरहः अराफ़, आयत न. 42)

मोमिन की इज़्ज़त का’बे से ज़्यादा है

हज़रते अब्दुल्लाह बिन उमर रदीअल्लाहु त’आला अन्हुमा फरमाते हैं मैंने हुजूर सैय्यदे आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम को देखा कि काबा मुअज्जमा का तवाफ़ करते और फ़रमातेः ऐ काबा तू कितना पाकीज़ा है और तेरी खुशबू कितनी पाकीज़ा है, तू कैसा अज़ीम है और तेरी हुर्मत कितनी बड़ी है, क़सम उसकी जिसके कब्ज़-ए-कुदरत में मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम) की जान है बेशक अल्लाह तआला के नज़दीक मोमिन की इज़्ज़त तेरी इज़्ज़त से बहुत ज़्यादा है। (फ़ैज़ाने आला हज़रत, पेज न. 79)

ईमान वालों की वजह से दुनिया आबाद है

अगर दुनिया ईमान वालो के वजूद से ख़ाली हो जाती तो ज़मीन वाले हलाक व बरबाद हो जाते अहले ईमान की बरकत से यह दुनिया हलाक न हुई। (फैजाने आला हज़रत, पेज 79)
हदीस में है रू-ए-ज़मीन पर हर ज़माने में कम से कम सात ईमान वाले ज़रूर रहे हैं ऐसा न होता तो ज़मीन व अहले ज़मीन सब हलाक हो जाते। (बुखारी)

दूसरी हदीस में है नूह अलैहिस्सलातु वस्सलाम के बाद जमीन कभी सात मोमिनों से खाली न हुई जिनके सबब अल्लाह तआला अहले जमीन से अज़ाब दफा फरमाता है। (मुसन्निफ अब्दुर्रज़्ज़ाक़) (फ़तावा रज़विया जिल्द 11, पेज 155)

ईमान वालों के अमल की क़द्र किया जाएगा

अल्लाह फ़रमाता है : तर्जमा : जो कुछ भले काम करेगा मर्द हो या औरत और हो ईमान वाले तो वो जन्नत में दाखि़ल किये जाएंगे और उन्हें तिल भर नुक़सान न दिया जाएगा (कंज़ुल ईमान, सुरह निसा, आयत न. 124)ईमान की अहमियत

हज़रते इब्ने मस्ऊद से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया जिस के दिल में राई के दाने के बराबर भी ईमान होगा वोह जहन्नम में दाखिल नहीं होगा और जिस शख़्स के दिल में राई के दाने के बराबर तकब्बुर होगा वोह जन्नत में दाखिल नहीं होगा। (मुस्लिम शरीफ)

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Iman Ki Haqiqat I ईमान की हक़ीक़त

ईमान की हक़ीक़त

ईमान की हक़ीक़त

ईमान इंसानी दिल के अंदर एक खस्लत का नाम है जिसके बाइस इंसान इस क़ाबिल बनता है कि उससे अल्लाह राज़ी हो जाता है, वो अश्रफ़ुल मख़लूक़ात कहलाता है। रहम दिली, अक़्ले सलीम, इल्मे नाफ़े और अमले सालेह के हुसूल , हुक़ूकुल्लाह और हुक़ूकुल इबाद की अदाएगी में खुलूस, कमाल और कबूलियत इसी ईमान के सबब हो सकते हैं। दरअस्ल ईमान वालों के साथ अल्लाह की मदद, उसकी रहमत और क़ुव्वत होती है। ईमानी खस्लतें शैतानी और नफ़्सानी खस्लतों के बर अक्स है यानी जिस इंसान के अंदर ईमानी खस्लतें जिस क़दर हों उससे शैतानी और नफ़्सानी खस्लतें उसी क़दर दूर होंगी। अगर इंसान की गफ़लत या गलती की वजह से शैतानी और नफ़्सानी खस्लतें उसमें पैदा होने लगे तो उसमें ईमान की शाख़ें ख़ुद ब ख़ुद मुरझाने लगेंगी और नतीजा येह होगा कि ईमान का दरख़्त या तो कमज़ोर पड़ जाएगा या बिल्कुल ख़त्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा किसी के साथ तब होगा जब वोह इंसान अपने वजूद को भूल जाए, आख़िरत को तरजीह देना छोड़ दे, अल्लाह और उसके रसूल के फ़रमान से मुँह मोड़ ले, ख़ालिक़ से डरने की बजाए मख़लूक़ से डरे, अल्लाह और उसके रसूल से सबसे बढ़कर मुहब्बत करने की बजाए दुनिया और दुनियवी चीज़ों से ज़्यादा मुहब्बत करे। ऐसे हालात में अल्लाह की नाराज़गी के सबब अल्लाह के हुक़्म से इंसान के अंदर शैतानी और नफ़्सानी खस्लतों का ग़लबा वाके होगा नतीजतन इंसान नाक़िसुल ईमान या बेईमान बन कर रह जाएगा जिसकी अलामत उसका अमल ही होगा यानी ऐसा अमल जो शरीयत व सुन्नत के खिलाफ़ उससे सादिर होगा।
वल्लाहु आलम

ईमान मानने का नाम है

ईमान मानने का नाम है यानी हक़ को हक़ और बातिल को बातिल मानने का नाम ईमान है जिसका ताअल्लुक़ दिल से है । हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु त’आला अलैहि व सल्लम खुदा की तरफ से जो लेकर आए जैसे तौहिद (यानी अल्लाह के जात, सिफात, अफ्आल, अहक़ाम के बारे अका़इद ) और रिसालत (यानी अल्लाह के रसूल ﷺ के जात, सिफात, अफ्आल, अहक़ाम के बारे अका़इद ),आसमानी किताबों, फरिश्तों, अच्छे बुरे तक़दीर, आखि़रत, क़यामत ये तमाम हक़ है इन सबको दिल से मान लेने का नाम ईमान है और इंकार करने का नाम कुफ्र है । ईमान एक बड़ी दौलत है जिसे यह मिल जाए वह बड़ा खुश नसीब है और उसकी हलावत व लज्ज़त से जो आशना हो जाए वह दुनिया से बेनियाज़ व ला तअल्लुक़ हो जाता है।

क़ुरआन में है : रसूल ईमान लाया उसपर जो उसके रब के पास से उस पर उतरा और ईमान वाले सब ने माना ,अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को , यह कहते हुए कि हम उसके किसी रसूल पर ईमान लाने में फ़र्क़ नहीं करते, और अर्ज़ की कि हमने सुना और माना। (कंजूल ईमान, सूरह बक़रह, आयत न. 285)

ईमाने मुजमल 

امَنتُ بِاللَّهِ كَمَا هُوَ بِأَسْمَائِهِ وَصِفَاتِهِ وَقَبِلْتُ جَمِيعَ أَحْكَامِهِ إِقْرَارُ بِاللَّسَانِ وَتَصْدِيقُ بِالْقَلْبِ 

तर्जुमा :– मैं ईमान लाया अल्लाह पर जैसा कि वोह अपने नामों और अपनी सिफ्तों के साथ है और मैं ने कुबूल किये उस के तमाम अहकाम मुझे इस का ज़बान से इकरार है और दिल से यकीन ।

 

ईमाने मुफस्सल (7 बातों पर ईमान लाना)
امَنتُ بِاللهِ وَمَلئِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَالْقَدْرِ خَيْرِهِ وَشَرِّهِ مِنَ اللَّهِ تَعَالَى وَالْبَعْثِ بَعْدَ الْمَوْتِ

“आमन्तु बिल्लाहि व मलाइकतिही व कुतुबिही व रूसुलिही वल यौमिल आखिर वल क़दरि खैरिही व शर्रिही मिनल्लाहि त’आला वल बअसि बा’दल मौत“
तर्जुमा :– मैं ईमान लाया अल्लाह पर और उस के फरिश्तों पर। और उसकी किताबों पर। और उसके रसूलों पर और आखि़रत के दिन पर । और उस पर कि अच्छी और बुरी तक़दीर का खालिक़ अल्लाह है। और मौत के बाद उठाऐ जाने (कियामत) पर ।

इल्म (जानने) का नाम ईमान नहीं

हुज़ूर अब्दुल हक़ मोहद्दीस देहलवी तहरीर फ़रमाते है ये बात भी ज़ेहन नशीन करनी चाहिए के नबीए करीम ﷺ को सिर्फ सच्चा नबी जान लेने का नाम ही ईमान नहीं बल्कि दिल से उसकी तस्दीक़ करना भी ज़रूरी है क्योंकि इल्म (यानी जानना) और चीज़ है और तस्दीक़ (यानी मानना) और चीज़ है। तस्दीक़ (मानने) का ताल्लुक़ दिल से है जबकि जानने (इल्म) का ताल्लुक़ अक़्ल से है)। हकीकत में दिल रंगे कबूल से रंगा जाता है और नूरे यक़ीन से मुनव्वर हो जाता है। इल्म सिर्फ जानने को कहते है। तमाम कुफ़्फ़ारे अरब बिल ख़ुसूस अहले यहूद तो हुज़ूर ﷺ को सच्चा नबी जानते थे और ये इल्म इतना मज़बूत था जैसे के वो अपने बेटे को पहचान रहे हो। क़ुरआन में है (तर्जुमा) : वो (नबी ﷺ को) ऐसे पहचानते है जैसे अपने बेटे को। हुज़ूर ﷺ के पैदा होने की खबरें, आप की सूरत व सीरत, आदत व ख़साइल, नाम व निशान, मकामे पैदाईश यहूद की किताबो में लिखा था। उनकी ज़बानो पर जारी था। बहुत से यहूदी इसी इंतजार में दुनिया के मुख्तलिफ मुमालिक से उठ कर मदीने में आबाद हो गए थे और अपनी उमरें इसी शौक़ में गुज़ार दीं और मरने से पहले अपनी औलादों को वसिय्यत करते रहे कि अगर नबी ﷺ आखि़रुज़्ज़मां तशरीफ लाए तो हमारा सलाम पहुँचाओ, हमारे इस्लाम लाने की ख्वाहिश का इज़हार करो। गर्ज़ के यहूद से बढ़ कर हुज़ूर ﷺ के मुतअल्लिक़ किसी दूसरे फिरके को इल्म न था। मगर जब नबूवत का आफताब तुलू हुआ यहूदियों की सक़ावते अज़ली ने इनकी अक़्लो पर पर्ददे डाल दिए और हसद व इनाद से हकीकते हाल को न पा सके। कुफ़्र व इनकार के गढ्डों में गिर गए और निजात की सारी रहो से महरूम हो गए (इस दौर में वहाबी देवबंदी और तमाम बतिल फिरके क़ुरआन और हदीस के मुताबिक नबी और औलिया की शान व अज़मत को तो जानते जरूर है लेकिन मानते  नही जैसे इल्मे ग़ैबे मुस्तफ़ा, हाज़िर व नाज़ीर, इख़्तियार वाला, हुज़ूर का वसीला, हयात, सफाअते मुस्तफ़ा, मज़ार, करामात वग़ैरह )।
इस से ये बात भी सामने आ जाती है के इल्म व अक़्ल बग़ैर इनायते इलाही अज़्ज व जल्ल और हिदायते खुदा वंदी के किसी काम नहीं आते और उसका कुछ भी असर नहीं होता। (तकमीले ईमान, पेज 113)

अमल (करने का नाम) ईमान नहीं

अमले जवारेह (ज़िस्मानी ज़ाहिरी अमल ) यानी हाथ पैर वग़ैरह से किए जाने वाले अमल या काम (जैसे, नमाज़, रोजा, तिलावत, तस्बीह वगैरह ) ईमान के अन्दर दाखिल नहीं है।(बहारे शरीयत, हिस्सा 1, ईमान व कुफ़्र का बयान, पेज 48, हिन्दी)

असल नेकी ईमान और ईमान की खसलतें हैं
अल्लाह फ़रमाता है (तर्जमा) : कुछ असल नेकी येह नहीं कि मुँह मशरिक़ या मग़रिब की तरफ़ करो हाँ असल नेकी येह कि ईमान लायें अल्लाह और कयामत और फरिश्तों और किताब और पैग़म्बरों पर और अल्लाह की महब्बत में अपना प्यारा माल खर्च करे रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और राहगीर और साइलों को और गरदने छुड़ाने में और नमाज़ कायम रखें और ज़कात दें और जब अहद करें तो अपना कौल (वादा) पूरा करने वाले और मुसीबत, सख्ती में और जिहाद के वक़्त सब्र वाले यही हैं जिन्होंने अपनी बात सच्ची की और यही परहेज़गार है। (सूरह बक़रह, आयत न. 177)

नमाज व रोज़ा ईमान का हिस्सा नहीं

अकीदा :- अस्ले ईमान सिर्फ तस्दीक़ का नाम है यानी जो कुछ अल्लाह व रसूल  ﷺ ने फ़रमाया है उसको दिल से हक़ मानना । आ’माल (यानी नमाज़, रोज़ा वग़ैरह) ईमान का हिस्सा नहीं। (बहारे शरीयत, हिस्सा 1, ईमान व कुफ़्र का बयान, पेज 47, हिन्दी)

वोह नमाज़ी जो मोमिन नहीं

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र (रजिअल्लाहु तआला अन्हुमा) से रिवायत है कि नबी अकरम (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि लोगों पर एक ऐसा ज़माना भी आयेगा कि वो मस्जिदों में इकट्ठे होंगे और बा जमाअत नमाज़ पढ़ेंगे लेकिन उनमें मोमिन न होगा। (इब्ने अबी शैबा 6/163-हदीस 30355,  (इमाम हाकिम-अल इमाम मुस्तदरक- 4/489-हदीस-8365)

रोज़ा ईमान का हिस्सा नहीं

हदीस 1 : अगर कोई शख्स झुट बोलना और दगा बाज़ी करना न छोड़े तो अल्लाह को इसकी कोई ज़रूरत नही की वो खाना पीना छोड़ दे यानी रोजा रखे। (बुखारी शरीफ)

हदीस 2 : बहुत से रोज़ेदार ऐसे है जिन्हें उनके रोज़े से सिवाय भूख और प्यास के कुछ हासिल नहीं होता । (सिर्रुल असरार, बाब 17,  पेज 100 )

ईमान, इल्म और अमल
इल्म और अमल, ईमान के ताबे है बग़ैर ईमान के इल्म और अमल बेकार और बग़ैर इल्म व अमल के ईमान नाक़िस (कमजोर) । ईमान दिल से मानने को कहते है, इल्म अक़्ल से जानने को कहते है और अमल जिस्म से करने को कहते है लिहाज़ा इल्म व अमल के बग़ैर दिल से मानना मुमकिन है लेकिन ईमान पर क़ायम रहना मुश्किल है नतीजतन ईमान का नाक़िस होने का अंदेशा है। जैसा कि अब्दुल हक़ मोहद्दीस देहलवी तहरीर फ़रमाते है कि
ईमान बे अमल नाकिस होता है। लेकिन असल ईमान तो तस्दीक बिल कल्ब ही है । ईमान उस दरख़्त की तरह जानना चाहिए जिस का तना तस्दीक है। आ’माल व ताआत इसी तस्दीक का नतीजा होते है। जिस दरखत की टहनियां, पत्ते फल फूल और बर्ग व बार न हो।हकीकत में वो दरखत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं है। लेकिन काम का दरखत वही होता है जिसके बर्ग व बार भी हो। इसी तरह ईमाने कामिल वही है जो नेक अमाल से बर्ग व बार से पुर रौनक़ हो। बे अमल नाकिसे ईमान होगा। नाकिस ईमान को भी ईमान ही कहा जायेगा। कुरान पाक में अकसर जगह ईमान के साथ अमले सलेह को मिलाया है।
तर्जुमाः जो लोग ईमान लाए और नेक काम करते रहे
इस आयते करीमा से ये ज़ाहिर होता है कि असल ईमान की तस्दीक़ है और अमले सालेह जुदा चीज़ है। अगरचे ईमान को कामिल करने वाला यही उन्सुर है। इसकी मिसाल यूँ ज़ेहन नशीन करनी चाहिए के फलां के पास येह चीज़ भी है और वो भी। इससे ये समझा जायेगा के उसके पास दोनो चीज़ें है। मगर वो दोनों जुदा जुदा है। चुनाँचे दोंनों को एक कहना दुरुस्त नहीं और जो दोनों को एक समझते है वो ग़लती पर है। (तकमीले ईमान, पेज 113)

नबी ﷺ की मुहब्बत व इश्क़ कामिल ईमान है

प्यारे नबी ﷺ फरमाते हैंः  तर्जमाः “तुम में कोई मोमिन न होगा जब तक मैं उसके माँ, बाप, औलाद और सब आदमियों से ज़्यादा प्यारा न हो जाऊँ।“

मुहम्मद है मताए आलम ईजाद से प्यारा

पिदर, मादर, बिरादर, जानो माल से प्यारा

आ’ला हज़रत अपनी किताब तमहीदे ईमान में लिखते है यह हदीस सहीह बुख़ारी व सहीह मुस्लिम में अनस इब्ने मालिक अंसारी रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से मरवी है इसमें तो यह बात साफ फ़रमा दी कि जो हुजूरे अक़दस ﷺ से ज़्यादा किसी को अज़ीज़ (महबूब) रखे हरगिज़ मुसलमान नहीं। मुसलमानों कहो मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह ﷺ को तमाम जहान से ज़्यादा महबूब रखना मदारे ईमान व मदारे नजात हुआ या नहीं? कहो हुआ और ज़रूर हुआ। यानी उन्ही की मुहब्बत ईमान है और उसी से नजात हासिल होगी। (तम्हीदे ईमान, पेज 6)

हुज़ूर ﷺ की मुहब्बत ही ऐने (असल) ईमान क्यों?

इस उम्मत में एलाने नबूवत से पहले और तौहीद (अल्लाह कौन है,उसकी ज़ात और सिफ़ात क्या हैं) की दावत से पहले हुज़ूर ﷺ ने अपने अख़लाक़, अपने अफ़आल व अक़वाल से अपने आप (ज़ात व सिफ़ात) को मनवाया कि मैं अल्लाह का रसूल हूं और मैं अल्लाह की जानिब से हक़ लेकर आया हूँ (यानी ईमान बिन्नबी यानी नबी पर ईमान लाना)। उस वक़्त और उसके बाद जितने लोग हुज़ूर ﷺ से मुहब्बत करने वाले थे सभी ने हुज़ूर ﷺ की बातों को दिल से माना और अहले ईमान में शुमार हुए मगर वो लोग जो हुज़ूर ﷺ से बुग्ज़ रखते वो शक में पड़े और हुज़ूर ﷺ की अफ़आल व अक़वाल जानने के बावजूद उनकी ज़ात व सिफ़ात मानने से इनकार कर गए । पता चला मुहब्बत करने वाले अपने महबूब पर कमी, ख़ामी या शक का इज़हार नहीं करते और उनकी हर ज़ाहिरी व बातिनी अदा (ज़ात व सिफ़ात) को बिना देखे दिल से मान लेते है । वाज़ेह हुवा की अल्लाह पर ईमान लाने से पहले हुज़ूर ﷺ पर ईमान लाना शर्त है और हुज़ूर ﷺ पर ईमान लाने के लिए हुज़ूर ﷺ की ज़ात व सिफ़ात को मानने के साथ उन तमाम बातों को मानना ज़रुरी जो अल्लाह की ज़ानिब से हुज़ूर ﷺ ले कर आये और साथ ही उनकी बताई हुई बातों पर बिला शुबह ईमान लाने के लिए हुज़ूर ﷺ की मुहब्बत शर्त है। बगैर महब्बत किये हुज़ूर ﷺ की तमाम बातों को मानना मुमकिन नहीं शैतान ज़रूर शक में डाल कर ईमान दिल से निकाल लेगा। शरई मसला है ज़रुरियाते दीन में बात का भी इंकार और ज़र्रा बराबर भी तौहीन कुफ़्र है।

तमाम असहाब पहले हुज़ूर ﷺ पर ईमान लाये फिर हुज़ूर ﷺ के बताने से अल्लाह और अल्लाह की किताब, रसूलों,  फ़रिश्तों, क़यामत, तक़दीर, आखि़रत, मरने के बाद उठाये जाने पर ईमान लाये।

वहीं तमाम बदमज़हबों का हाल ये है कि हुज़ूर ﷺ की बातों पर ईमान लाते है लेकिन शक व शुबहात के साथ और हुज़ूर ﷺ की सिफ़ात में से बहुतर सारी ख़ूबियों पर ईमान लाने से इनकार करते हैं जैसे आपके इल्मे ग़ैब, आपके हाज़िर व नाज़िर होना, आपका वसीला लेना, आपके इख़्तियार, आपके नूर होने, निदाए या रसूलल्लाह, आपके नाम पर अंगूठा चूमना, आपकी क़ब्र ए अतहर पर हाज़री देना, आप पर सलाम पढ़ना, मीलाद मनाना, जुलूस निकालना वग़ैरहुम पर ऐतराज़ करना वहाबियों के अक़ीदे की ख़राबी है और अमल में तअ़ज़ीमें नबी (जो ईमान है) से इनकार करते है। हुज़ूर ﷺ की ताअ़ज़ीम न करना इस बात की दलील है की हुज़ूर ﷺ से मुहब्बत नहीं है। अगर मोहब्बत होती तो हर हाल में तअ़ज़ीम करते जैसा कि असहाब की जमात किया करती थी।

खुदा की रज़ा चाहते हैं दो आ़लम

खुदा चाहता है रज़ाए मुह़म्मद ﷺ

कामिल ईमान की मिसाल और ईमान की शाख़ें

हुज़ूरे अकरम ﷺ से इश्क़ व मुहब्बत ईमान की दरख़्त है और इस दरख़्त की छोटी बड़ी बहुत सी टहनियाँ और शाखें है जिनका ज़िक्र हदीस में 60 या 70 से ज्यादा है इन्ही शाखों की वजह से वह दरख्त हरा भरा सायादार इन्तिहाई खुशनुमा और निहायत ही हसीन व खूबसूरत नज़र आता है। यही मिसाल कामिल ईमान की है कि छोटी बड़ी बहुत से खसलतें हैं कि जिनकी वजह से ईमान की रौनक और खूबी में चार चाँद लग जाते हैं और उसके असरात और समरात की बदौलत साहिबे ईमान की ज़िन्दगी दोनो जहान में हुस्न व जमाल का एक ऐसा जाज़िब नज़र मुरक्कअ बन जाती है कि वह तमाम मखलूक़ की निगाहों में साहिबे वक़ार और काबिले ऐतिबार हो जाता है और दरबारे खुदावन्दी में अज़मते दारैन का हक़दार बन जाता है। लेकिन अगर दरख़्त ही न हो यानी नबी ﷺ से इश्क़ व मुहब्बत ही न हो तो ईमान की शाख़ें कैसी और शाख़ें न होगी तो आ’माल यानी नमाज़, रोज़ा वगैरह का कोई असल नहीं यानी सब बेकार।

ईमान की असल व फरअ
वाज़ेह रहना चाहिये कि अहले सुन्नत व जमाअत और अरबाबे तहक़ीक़ व मारिफ़त के दर्मियान इत्तेफाक़ है कि ईमान में असल भी है और फ़रअ भी, असल ईमान दिल से मानना है और उसकी फरअ जिस्मानी आज़ा से अमल करना है। अहले अरब यानी अलग गिरोह का मौकिफ़ है कि वह किसी फुरई बात को बतौर इस्तेआरा असल कहते हैं जैसे कि तमाम लुग़तों में शुआए आफताब को आफताब कहा गया है। इसी लिहाज़ से वह गिरोह अमल को ईमान कहते है। क्योंकि बंदा नेक अमल के बग़ैर अज़ाबे इलाही से महफूज़ नहीं रहता न ही तसदीक़ महफूज रहने की उम्मीद है, जब तक कि वह दिल से तसदीक़ के साथ अहकाम भी न बजा लाये। लिहाजा जिस की ताअतें ज्यादा होंगी वह अजाबे इलाही से ज्यादा महफूज़ होगा। चूंकि तसदीक व कौल के साथ, अमल महफूज़ रहने का ज़रिया है। इसलिए इसको भी ईमान कह देते है (कशफुल महज़ूब हिन्दी, पेज 386)
मशहूर मुसन्निफ़ अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी अलैहिर्रहमह 40 हदीस की शरह वाली किताब “मुन्तख़ब हदीसें“ में तहरीर फ़रमाते हैंः-
ईमान असल है और आमाल उसकी फरअ हैं। इसलिए कि इस हदीस में या दूसरी हदीसों में जहाँ जहाँ भी आमाल को ईमान कहा गया है, मजाज़ के तौर पर कहा गया है। वरना ज़ाहिर है कि आ’माल ईमान का हिस्सा नहीं हैं। क्योंकि कुरआन व हदीस में बे शुमार जगहों पर ’आमेनू व अमेलुस्सालेहात’ (तर्जमा : ईमान लाओ फिर नेक अमल करो) का लफ़्ज आया है और अमल का ईमान पर अत्फ़ किया गया है और अत्फ़ का तक़ाजा यही है कि मातूफ (2 को मिलना जैसे ईमान और अमल) और मातूफ इलैह में तगार हो। (यानी ईमान के साथ अमल को मिला कर बोला गया लेकिन ईमान का दर्जा बुलंद है और अमल ईमान के ताबे यानी गुलाम है, जिस तरह बादशाह और ग़ुलाम में फर्क है उसी तरह ईमान और अमल में फ़र्क़ है ) लिहाजा साबित हुआ कि अमल और चीज़ है और ईमान और चीज़ है। ईमान असल और आ’माल ईमान की ख़सलतें और अलामतें हैं। या यूँ कह लीजिए कि आ’माल ईमान के असरात व समरात (नतीजे) हैं। (मुन्तख़ब हदीसें, पेज 55, हिन्दी)

Tarke Duniya I

हज़्ज़तुल इस्लाम ईमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह मुकाशफतुल क़ुलूब में तहरीर फ़रमाते है की  कु़रआने मजीद और अहादीस में दुनिया की मज़म्मत और दुनिया से तवज्जोह हटा कर आखि़रत की जानिब माइल करने के लिए बेशुमार आयतें और रिवायात हैं बल्कि अम्बियाए किराम अलैहिमुस्सलाम को भेजने का सबब यही चीज़ थी यानी तर्के दुनिया

हज़्ज़तुल इस्लाम ईमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह मुकाशफतुल क़ुलूब में तहरीर फ़रमाते है की  कु़रआने मजीद और अहादीस में दुनिया की मज़म्मत और दुनिया से तवज्जोह हटा कर आखि़रत की जानिब माइल करने के लिए बेशुमार आयतें और रिवायात हैं बल्कि अम्बियाए किराम अलैहिमुस्सलाम को भेजने का सबब यही चीज़ थी यानी तर्के दुनिया

क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है :

“जो आख़िरत की खेती चाहे हम उसके लिये उसकी खेती बढ़ाएं और जो दुनिया की खेती चाहे हम उसे उसमें से कुछ देंगे और आख़िरत में उसका कुछ हिस्सा नहीं”। (कंजूल ईमान, सूरह शूरा, आयत न. 20) 

दुनिया मोमिन के लिए कैद खाना

हुजू़र ﷺ ने फ़रमाया दुनिया मोमिन के लिए कैद खाना और काफ़िर के लिए जन्नत है। (मुकाशफुतुल क़ुलूब, बाब 31, पेज 187)

दुनिया मलऊन है

हुजू़र ﷺ ने फ़रमाया दुनिया मलऊन है, उस की हर वह चीज़ मलऊन है जो अल्लाह के लिए न हो। (मुकाशफुतुल क़ुलूब, बाब 31, पेज 187)

आख़िरत को तर्जीह दो :

हज़रते अबू मूसा अशअरी रज़ियल्लाहु अन्हु से मरवी है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जिस ने दुनिया से मुहब्बत की उस ने आखिरत को नुकसान पहुंचाया और जिस ने आखिरत से मुहब्बत की उस ने दुनिया को किसी लाइक न समझा। तुम फानी दुनिया पर बाकी रहने वाली चीज़ों को तर्जीह दो क्योंकि फ़रमाने नबवी है कि दुनिया की मुहब्बत हर बुराई की बुनियाद है। (मुकाशफुतुल क़ुलूब, बाब 31, पेज 187)

हज़्ज़तुल इस्लाम ईमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह मुकाशफतुल क़ुलूब में तहरीर फ़रमाते है की  कु़रआने मजीद और अहादीस में दुनिया की मज़म्मत और दुनिया से तवज्जोह हटा कर आखि़रत की जानिब माइल करने के लिए बेशुमार आयतें और रिवायात हैं बल्कि अम्बियाए किराम अलैहिमुस्सलाम को भेजने का सबब यही चीज़ थी यानी तर्के दुनिया

 

Ummat Par Nabi ﷺ Ke Huqooq I उम्मत पर हुज़ूर ﷺ के हुक़ूक

हुक़ूके नबी ﷺ के लिए उम्मत पर तक़ाज़े

ज़ाहिर है कि हुजूर सरवरे अंबिया महबूबे किब्रिया ने अपनी उम्मत के लिए जो जो मशक्कतें उठाई उनका तकाज़ा है कि उम्मत पर हुजूर के कुछ हुकूक है जिनको अदा करना हर उम्मती पर फ़र्ज़ व वाजिब है (यानी हर हाल में करना है)।

उम्मतियों पर नबी के 8 हुक़ूक

हज़रत अल्लामा काजी अयाज़ ने नबी के मुकद्दस हुकूक को अपनी किताब ‘शिफा शरीफ’ में बहुत ही मुफस्सल तौर पर बयान फ़रमाया है। हम यहाँ उनमें से कुछ का खुलासा तहरीर करते हुए निम्नलिखित 8 हुकूक का ज़िक्र करते हैं।

(1) ईमान बिरर्रसूल ﷺ

ईमान बिरर्रसुल से मुराद यह है कि हुजूरे अकदस की नुबुव्वत, रिसालत, जात व सिफात पर ईमान लाना यानी मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम को सच्चा जानना और हुजूर की हक्कानियत (जात व सिफात) को सिदक दिल से मानना और जो कुछ आप अल्लाह तआला की तरफ से लाए हैं सच्चे दिल से उसको सच्चा मानना हर हर उम्मती पर फर्ज़ ऐन है हर मोमिन का इस पर ईमान है कि बगैर रसूल ﷺ पर ईमान लाए हुए हरगिज़ हरगिज़ कोई मुसलमान नहीं हो सकता। कुरआन में खुदावंदे आलम जल्ला जलालुह का फरमान है किः-
अल्लाह फ़रमाता है : ऐ लोगो तुम्हारे पास ये रसूल ﷺ हक़ के साथ तुम्हारे रब की तरफ़ से तशरीफ़ लाए तो ईमान लाओ अपने भले को। (सूरह निसा, आयत न. 170)
 
तर्जमा : ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल ﷺ बे पढ़े ग़ैब बताने वाले पर (सूरह अराफ, आयत न 158)
 
तर्जमा : जो अल्लाह और उसके रसूल ﷺ पर ईमान न लाया तो यकीनन हमने काफिरों के लिए भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है। इस आयत ने बिल्कुल खुल्लम-खुल्ला और सफाई के साथ फैसला कर दिया कि जो लोग रसूल ﷺ की रिसालत पर ईमान नहीं लाएंगे वह अगरचे खुदा की तौहीद का उम्र भर डंका बजाते रहें मगर वह काफिर और जहन्नमी ही रहेंगे। इसलिए इस्लाम का बुनियादी कलिमा यानी कलिमा-ए-तय्यबाः ला इलाहा इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह है। यानी मुसलमान होने के लिए ख़ुदा की तौहीद और रसूल ﷺ की रिसालत दोनो पर ईमान लाना जरूरी है।
 
कामिल ईमान की अलामत
हज़रत उमामा (रजिअल्लाहु तआला अन्हु) से रिवायत है कि हुजूर ﷺ ने फरमाया कि जिस शख़्स ने अल्लाह तआला के लिये दिया और अल्लाह तआला के लिये रोका और जिसने अल्लाह ही के लिये मुहब्बत की अल्लाह ही के लिये दुश्मनी की तो उसका ईमान मुकम्मल हो गया। (अबू दाऊद-सुनन-6/555-ह-4681) 
हज़रत अब्दुल्लाह बिन हिशाम (रजिअल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि हज़रत उमर (रजिअल्लाहु तआला अन्हु) ने हुजूर ﷺ से अर्ज़ किया कि या रसूल ﷺ मेरी जान के अलावा आप मुझे हर चीज से ज़्यादा महबूब हैं तो आप ﷺ ने फ़रमाया नहीं मुझे उस ज़ात की कसम जिसके कब्ज़े कुदरत में मेरी जान है कि ईमान उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हो सकता जब तक मेरी जात तुम्हें अपनी जान से भी ज़्यादा महबूब न हो जाये तो हज़रत उमर (रजिअल्लाहु तआला अन्हु ने अर्ज़ किया कि अल्लाह की कसम आप मुझे मेरी जान से भी ज़्यादा महबूब और प्यारे हैं तो आपﷺ ने फ़रमाया ऐ उमर अब ( तेरा ईमान मुकम्मल हुआ) (बुखारी – सही – 6/143-ह-6632)
 
ईमान लाने वाले मेरे भाई है
हज़रत अनस (रजिअल्लाहु तआला अन्हु) से रिवायत है कि रसूल ﷺ अकरम ﷺ ने फ़रमाया कि मैंने ये चाहा कि मैं अपने भाइयों से मिलूँ तो सहाबा किराम (रजिअल्लाहु तआला अन्हुम) ने अर्ज़ किया या रसूल ﷺ क्या हम आपके भाई नहीं हैं तो आप (सल्लल्लाहु तआला ़) ने फ़रमाया कि तुम मेरे सहाबा हो लेकिन मेरे भाई वो होंगे जो मुझ पर ईमान लायेंगे हालाँकि उन्होंने मुझे देखा न होगा ।     ( मुस्नद अहमद – 5/476 हदीस-12607)
 
बगैर देखे ईमान लाने का हिसाब
हज़रत अबू उमामा (रजिअल्लाहु तआला अन्हु) से रिवायत है कि हुजूर नबी ﷺ अलैहि व आलिहि वसल्लम) ने फ़रमाया खुशख़बरी और मुबारक बाद हो उसके लिये कि जिसने मुझे देखा और मुझ पर ईमान लाया और सात बार खुशख़बरी और मुबारक बाद हो उसके लिये कि जिसने मुझे नहीं देखा और मुझ पर ईमान लाया । (इब्ने हिब्बान-सही-8/401 – ह-7233)
 
1 हुज़ूर के इल्मे गैब पर ईमान 
मुतलकन इल्मे गैब का मुंकिर (इनकार करने वाला) काफिर है कि वह सरे ही से नबुव्वत का मुंकिर है, 
नबुव्वत कहते ही इल्मे गैब देने को।
इमाम काजी अयाज मालिकी रहमतुल्लाह तआला अलैह शिफा शरीफ में फरमाते हैंः नबुव्वत ग़ैब पर मुत्तला होने का नाम है (अल मलफूज जिल्द 3, पेज 8)
आयाते कुरआनिया से हुजूर के इल्मे गैब का सुबूत कुरआने अजीम फरमाता है।
ऐ मेहबूब अगर अल्लाह का फ़ज़्ल व रहमत तुमपर न होता  तो उनमें के कुछ लोग यह चाहते कि तुम्हें धोखा दे दे और वो अपने ही आपको बहका रहे हैं और तुम्हारा कुछ न बिगाड़ेंगे और अल्लाह ने तुम पर किताब और हिकमत (बोध) उतारी  और तुम्हें सिखा दिया जो कुछ तुम न जानते थे  और  अल्लाह का तुमपर बड़ा फ़ज़्ल है  (सूरह निसा 113) तर्रजमा : ’ ऐ आम लोगो! अल्लाह इसलिए नहीं कि तुम्हें गैब पर मुत्तला फरमा दे हाँ अपने रसूल ﷺसे चुन लेता है जिसे चाहे ।
अल्लाह तआला आलेमुल-गुयूब है तो अपने गैब पर किसी को मुसल्लत नहीं फरमाता मगर अपने पसन्दीदा रसूल ﷺ को।
सिर्फ इज़हार ही नहीं बल्कि रसूल ﷺ को इल्मे गैब पर मुसल्लत फरमा दिया। 
और कुरआने करीम में इरशाद फरमाता है : यानी मेरा महबूब गैब पर बखील नहीं। (अल-तकवीर, 24 )
 
जिसमें इस्तेअदाद पाते हैं उसे बताते भी हैं, और जाहिर है कि बखील वह कि जिसके पास माल हो और सर्फ न करे, यह कि जिसके पास माल ही नहीं क्या बखील कहा जाएगा और यहाँ बखील की नफी की गई तो जब तक कोई चीज सर्फ की न हो क्या मफ़ाद हुआ, लिहाजा मालूम हुआ कि हुजूर गैब पर मुत्तला है और अपने गुलामों को उस पर इत्तिला बख्शते हैं। और फरमाता है 
हमने तुम पर यह किताब हर शय का रौशन ब्यान कर देने के लिए उतारी (अल-बहल 89) 
अल्लाह व रसूल ﷺ की मुहब्बत पैदा होने का जरिया
तिलावते कुरआन मजीद और दरूद शरीफ़ की कसरत और नाअत शरीफ के सही अश्आर खुश इल्हानों से बकसरत सुने और अल्लाह व रसूल ﷺ की नेअमतों और रहमतों में जो उस पर हैं गौर करें तो इन चीज़ों से दिल में ख़ुदा व रसूल ﷺ  सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम की मुहब्बत पैदा होगी। (अल-मल्फूज अव्वल, स 115 ) 
 
हुज़ूर पर हर चीज रौशन हो गई
हदीस में है जिसे इमाम तिर्मिज़ी वगैरह ने दस सहाबा से रिवायत किया कि सहाबा किराम फरमाते हैं कि एक रोज़ हम सुबह को नमाज़े फ़ज के लिए मस्जिदे नब्बी में हाज़िर हुए और हुज़ूर की तशरीफ़ आवरी में देर हुई, यानी करीब था कि आफताब तुलूअ कर आए इतने में हुजूर तशरीफ फरमा हुए और नमाज़ पढ़ाई, फिर सहाबा से मुखातिब होकर फरमाया कि तुम जानते हो क्यों देर सबने अर्ज़ की अल्लाह व रसूल ﷺ खूब जानते हैं. इरशाद फरमाया मेरा रब सबसे अच्छी तजल्ली मैं मेरे पास तशरीफ लाया। यानी मैं एक दूसरी नमाज में मशगूल था इस नमाज में अब्द दरगाह माबूद में हाज़िर होता है और वहाँ खुद ही माबूद की अब्द पर तजल्ली हुई. उसने फरमाया ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम यह फरिश्ते किस बात में मुखासमा और मुवाहात करते हैं. मैंने अर्ज की कि मैं बे तेरे बताए क्या जानूँ?
“तो रब्बुल इज्जत ने अपना दस्ते कुदरत मेरे शानों के दरम्यान रखा और उसकी ठंडक मैंने अपने सीने में पाई और मेरे सामने हर चीज़ रौशन हो गई और मैंने पहचान ली। (तिर्मिज़ी) “
सिर्फ इसी पर इक्तिफा न फरमाया कि किसी वहाबी साहब को यह कहने की गुंजाइश न रहे कि “कुल्लु शैइन“ से मुराद हर शय मुतअल्लिक ब-शराए है, बल्कि एक रिवायत में फरमायाः
मैंने जान लिया जो कुछ आसमान और ज़मीन में है। और दूसरी रिवायत में फरमाया और मैंने जान लिया जो कुछ मश्रिक व मरिब तक है।
यह तीनों रिवायतें सही हैं तो तीनों लफ्ज़ इरशादे अक्दस से साबित हैं, यानी मैंने जान लिया जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, और जो कुछ मश्रिक से मग्रिब तक है हर चीज़ मुझ पर रौशन हो गई और मैंने पहचान लिया।
और रौशन होने के साथ पहचान लेना इसलिए फरमाया कि कभी शय मारूफ होती है, पेशे नज़र नहीं, और कभी राय पेश नजर होती है और मारूफ नहीं, जैसे हज़ार आदमियों की मज्लिस को छत पर से देखो वह सब तुम्हारे पेशे नज़र होंगे, मगर उनमें बहुत को पहचानते न होगे, इसलिए इरशाद फरमाया कि तमान अश्यिए आलम हमारे पेशे नज़र भी हो गई और हमने पहचान भी लिया कि उनमें न कोई हमारी निगाह से बाहर रही न इल्म से खारिज मुसलमान
 
देखें सूस
में बिला ज़रूरत तावील व तख्सीस बातिल व ना मस्मूअ है, अल्लाह अज्जा व जल्ल ने फरमाया हर चीज़ का रौशन ब्यान कर देने को यह किताब हमने तुम पर उतारी,
नबी ﷺ सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम ने फरमाया हर चीज़ मुझ पर रौशन हो गई और मैंने पहचान ली।
तो बिलाशुबह यह रुयत व मारिफ़त जमीअ भक्नूनाते कलम व मक्तूबाते लौह को शामिल है जिसमें सब माकाना वमायकून रोजे अव्वल से रोज़े आखिरत तक व जुमला ख़्वातिर व जमाइर सब कुछ दाखिल । रसूल ﷺ फरमाते हैं बेशक अल्लाह ने मेरे सामने
दुनिया उठा ली है तो मैं इसे और इसमें जो कुछ क्यामत तक होने वाला है सबको ऐसा देख रहा हूँ जैसे अपनी इस हथेली को (कंजुल उम्माल )
और हुजूर के सदका में अल्लाह तआला ने हुज़ूर के गुलामों को यह मरतबा इनायत फरमायाः  एक बुजुर्ग फरमाते हैं वह मर्द नहीं जो तमाम दुनिया को मिस्लं हथेली के न देखे, 
 
2 हुज़ूर की तवस्सुल पर ईमान
अल्लाह का फरमान (तर्जमा) : अगर जब वह अपनी जानों पर ज़ुल्म करें तो ऐ मेहबूब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों और फिर अल्लाह से माफ़ी चाहें और रसूल ﷺ उनकी शफ़ाअत फ़रमाए तो (इस वसीले के जरिये) ज़रूर अल्लाह को बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पाएं (सूरह निसा, आयत न. 64)
 
बारगाहे खुदावंदी में रसूल ﷺ का वसीला
हुजूरे अकदस का बारगाहे इलाही में वसीला बना कर दुआ मांगना जायज़ बल्कि मुस्तहब है। इसीको तवस्सुल व इस्तिगासा व तशफ्फुअ वग़ैरह मुख्तलिफ नामों के साथ बोला जाता है। हुजूर को खुदा के दरबार में वसीला बनाना यह हज़राते अंबिया व मुरसलीन की सुन्नत और सलफे सालिहीन का अच्छा तरीका है। यह तवस्सुल (वसीला) हुजूर की पैदाइश से पहले आपकी जाहिरी जिंदगी में और आपकी वफाते अकदस के बाद तीनों हालतों में साबित है। चुनान्चे हम यहाँ तीनों हालतों में आप से तवस्ल करने की चन्द मिसालें निहायत ही इख़्तिसार के तौर पर ज़िक्र करते हैं।
 
पैदाइश से पहले वसीला का सबूत
रिवायत है कि हज़रते आदम अलैहिस्सलाम ने दुनिया में आ कर बारी तआला से यूँ दुआ मांगी कि तरजमाः ऐ मेरे परवरदिगार में तुझ से मुहम्मद के वसीला से सवाल करता हूँ कि तू मुझे माफ़ फ़रमा दे। अल्लाह तआला ने इर्शाद फ़रमाया कि ऐ आदम! तुमने मुहम्मद  को किस तरह पहचाना। हालांकि मैंने अभी तक उनको पैदा भी नहीं फ़रमाया। हज़रते आदम अलैहिस्सलाम ने अर्ज़ किया कि ऐ मेरे परवरदिगार ! जब तूने मुझे पैदा फ़रमा कर मेरे बदन में रूह फूँकी तो मैंने सर उठा कर देखा कि अशें मजीद के पायों पर ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह लिखा हुआ है। उससे मैंने समझ लिया कि तूने जिसके नाम को अपने नाम के साथ मिला कर अर्श पर तहरीर कराया है वह यकीनन तेरा सबसे बड़ा महबूब होगा। अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि ऐ आदम! (अलैहिस्सलाम) बेशक! तुमने सच कहा । वो मेरे नज़दीक तमाम मख्लूक से ज़्यादा महबूब हैं। चूँकि तुमने उनको मेरे दरबार में वसीला बनाया है इसलिए मैंने तुमको माफ़ कर दिया। सुन लो कि अगर मुहम्मद न होते तो मैं तुमको पैदा न करता । इस हदीस को इमाम बैहकी ने रिवायत फ़रमाया है। (रूहुल बयान सूरए अहजाब, सफा-230)
 
नबी ﷺ के वसीले से जंग जितना
हुजूर नबीये करीम ﷺ की तशरीफ आवरी से पहले यहूद का यह तरीका था कि जब कभी काफिरों और मुश्रिकों से जंग होती थी और उन्हें ऐसा महसूस होता कि वह जंग हार जाएंगे तो उस वक़्त तौरात को सामने रखते और वह जगह खोल कर, जहाँ हुजूर नबीये करीम ﷺ की सिफात और कमालात का ज़िक्र होता, वहाँ हाथ रखते और यूँ दुआ मागंतेः ऐ खुदा हम तुझ से तेरे उस नबी का वास्ता देकर अर्ज करते हैं, जिस की बेअसत (यानी आखिरी नबी का आने) का तूने हम से वादा किया है, आज हमें अपने दुशमनों पर फतह दे। अल्लाह तआला हुजूर ﷺ के सदके में उन्हें फतह (जीत) देता। (क्या आप जानते है,19 )
 
जाहिरी हयाते अक़दस में वसीला का सबूत
 हज़राते सहाब-ए-किराम आपकी मुकद्दस मजलिस में हाज़िर होकर जिस एक नाबीना बारगाहे अकदस में हाज़िर हुआ अर्ज़ किया कि आप अल्लाह तआला से दुआ कर दें कि वह मुझे आराम बख़्शे । आपने फ़रमाया कि अगर तू चाहे तो मैं दुआ कर देता हूँ। अगर तू चाहे तो सब्र कर। सब्र तेरे हक में अच्छा है जब उसने दुआ के लिए इसरार किया तो आपने उसको हुक्म दिया कि तुम अच्छी तरह वुजू करके यूँ दुआ मांगो कि
तर्जुमा : या अल्लाह ! मैं तेरी बारगाह में सवाल करता हूँ और तेरे नबी -ए- रहमत का वसीला पेश करता हूँ या मुहम्मद  मैंने अपने परवरदिगार की बारगाह में आपका वसीला पेश किया है। अपनी इस ज़रूरत में ताकि वे पूरी हो जाए या अल्लाह तू मेरे हक में हुजूर की शफाअत कुबूल फरमा।
इस हदीस को तिर्मिज़ी व निसाई ने रिवायत किया है और तिर्मिज़ी ने फ़रमाया कि इमाम बैहकी व तबरानी ने भी इस हदीस को सही कहा है। मगर इमाम बैहकी ने इतना और कहा है कि उस नाबीना ने ऐसा किया और उसकी आँखें अच्छी हो गई। (वफाउल वफा, जिल्द-2, सफा 420 )
 
वफ़ाते अकदस के बाद वसीला
वफाते अकदस के बाद भी हज़राते सहाब-ए-किराम अपनी जरूरतों और मुसीबतों के वक़्त हुजूर को अपनी दुआओं में वसीला बनाया करते थे। बल्कि आपको पुकार कर आपसे मदद माँगा करते थे।
हिकायत गुनाहों की माफी के लिए नबी ﷺ का वसीला
 सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की वफ़ाते शरीफ़ के बाद एक अरब देहाती आपके मुबारक रौज़े पर हाज़िर हुआ और रोज़ए शरीफ़ की पाक मिट्टी अपने सर पर डाली और अर्ज़ करने लगा, या रसूल ﷺ, जो आपने फ़रमाया हमने सुना और जो आप पर उतरा उसमें यह आयत भी है “वलौ अन्नहुम इज़ ज़लमू”. मैंने बेशक अपनी जान पर ज़ुल्म किया और मैं आपके हुज़ूर में अल्लाह से अपने गुनाह की बख़्शिश चाहने हाज़िर हुआ तो मेरे रब से मेरे गुनाह की बख़्शिश कराईये. इस पर क़ब्र शरीफ़ से आवाज़ आई कि तेरी बख़्शिश की गई.
 इससे कुछ मसअले मालूम हुए. अल्लाह तआला की बारगाह में हाजत अर्ज़ करने के लिये उसके प्यारों को वसीला बनाना कामयाबी का ज़रिया है. क़ब्र पर हाजत के लिये जाना भी ” जाऊका” में दाख़लि है। (खजाइनुल इरफान)
 
बारिश के लिए इस्तिगासा ( मदद ) : 
हज़रते अमीरूल – मोमिनीन फारूके आज़म के दौरे खिलाफ़त में सूखा पड़ गया तो हज़रते बिलाल बिन हारिस सहाबीने रसूल ﷺकी कब्रे अनवर पर हाज़िर होकर अर्ज किया कि या रसूल ﷺ! (3) अपनी उम्मत के लिए बारिश की दुआ फ़रमाएँ। वह हलाक हो रही है। रसूल ﷺने ख़्वाब में उनसे इर्शाद फ़रमाया कि तुम हज़रते उमर के पास जाकर मेरा सलाम कहो। खुशखबरी दे दो कि बारिश होगी। यह भी कह दो कि वह नर्मी इख़्तियार करें। उस शख्स ने बारगाहे ख़लिफ़त में हाज़िर होकर ख़बर दी। हज़रते उम यह सुन कर रोए । फिर कहा ऐ रब ! में कोताही नहीं करता मगर उसी चीज़ में कि जिससे मैं आजिज़ हूँ।
 
जीत के लिए आपका वसीलाः 
अमीरुल मोमिनीन हज़रते फारूके आज़म ने हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त के हाथ अपना ख़त अमीरे लश्कर हज़रते अबू-उबैदा बिन- जर्राह के नाम मकामे ’यरमूक’ में भेजा। सलामती की दुआ मांगी। हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त जब मस्जिदे नबवी से बाहर आए तो उनको ख़याल आया कि मुझसे बड़ी गलती हुई कि मैं ने रोज़- -ए-अकदस पर सलाम नहीं अर्ज़ किया। चुनान्चे वापस लौट कर जब कब्रे अनवर के पास हाज़िर हुए तो वहाँ हज़रते आइशा हज़रते अब्बास व हज़रते अली व हज़रते इमाम हसन व हज़रते इमाम हुसैन हाज़िर थे। हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त ने उन हज़रात से जंगे यरमूक में इस्लाम की फतह के लिए दुआ की दरख्वास्त की तो हज़रते अली व हज़रते अब्बास ने हाथ उठा कर यूँ दुआ मांगी कि :- (वफाउल वफा)
“या अल्लाह ! हम उस नबी ﷺ-ए-मुस्तफा व रसूल ﷺे मुज्तबा कि जिनके वसीले से हज़रते आदम अलैहिस्सलाम की दुआ कुबूल हो गई और खुदा ने उनको माफ फरमा दिया, उनहीं के वसीला से दुआ करते हैं कि तू हज़रते अब्दुल्लाह बिन कुर्त पर उसका रास्ता आसान कर दे। दूर को नज़दीक कर दे। अपने नबी ﷺ के अस्हाब की मदद फ़रमा कर उनको कामयाबी अता फरमा दे।
उसके बाद हज़रते अली ने हज़रते अब्दुल्लाह बिन कृर्त से फ़रमाया कि अब आप जाइए। अल्लाह तआला हज़रते उमर व अब्बास व अली व हसन व हुसैन व अज़्वाजे नबी ﷺ (3) की दुआ को रद्द नहीं फरमाएगा जबकि उन लोगों ने उसकी बारगाह में उस नबी ﷺ का वसीला पकड़ा है जो अकरमुल ( फतहुश्शाम जिल्द 1 सफा -105) 
 
3 इख्तियारे नबी ﷺ पर ईमान 
क़ुरआन में अल्लाह का फरमान (तर्जमा) : यह नबी ﷺ मुसलमानों का उनकी जान से ज़्यादा मालिक है(सूरह अहज़ाब, आयत न. 6)
तफ़्सीर :दुनिया और दीन के तमाम मामलों में. और नबी ﷺ का हुक्म उनपर लागू और नबी ﷺ की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी. और नबी ﷺ के हुक्म के मुक़ाबले में नफ़्स की ख़्वाहिश का तर्क हर हाल में जरुरी है.
 
हुज़ूर के चाहने से क़िब्ला बदल गया
क़ुरआन में अल्लाह का फरमान है ( तर्जमा) : (ऐ नबी ﷺ) हम देख रहे हैं बार बार तुम्हारा आसमान की तरफ़ मुंह करना तो जरूर हम तुम्हें फेर देंगे उस क़िबले की तरफ़ जिसमें तुम्हारी ख़ुशी है अभी अपना मुंह फेर दो मस्जिदे हराम की तरफ़, और ऐ मुसलमानों तुम जहां कहीं हो अपना मुंह उसी की तरफ़ करो और वो जिन्हें किताब मिली है ज़रूर जानते है कि यह उनके रब की तरफ़ से हक़ है और अल्लाह उनके कौतुकों से बेख़बर नहीं (सूरह बक़रह, आयत न. 144)
पहले मुसलमानों का क़िब्ला काअबा नहीं था बल्कि बैतूल मुकद्दस क़िब्ला था । नबी ﷺ  को बैतुल मुकद्दस की तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया गया था और आप ﷺ रब तआला के हुक्म की पैरवी करते हुये बैतुल मुकद्दस की तरफ मुँह मुबारक करके नमाज़ अदा करते रहे अलबत्ता हुजूर ﷺ की चाहत ये थी कि कअबा को मुसलमानों का किब्ला बना दिया जाये और इसकी वजह ये नहीं थी कि आपको बैतुल मुकद्दस का किब्ला बनाया जाना पसंद नहीं था बल्कि इसकी कई वजह थीं एक ये कि खाना-ए-काबा हज़रत सय्यदना इब्राहीम अलैहिस्सलाम व उनके अलावा कसीर अम्बिया किराम (अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम ) का किब्ला था  चुनांचा एक दिन हालते नमाज़ में रसूल ﷺ अकरम ﷺ इस उम्मीद में बार बार आसमान की तरफ देख रहे थे कि अल्लाह के हुक़्म से किब्ले की तब्दीली का हुक्म आ जाये चुनांचा दौराने नमाज़ यही आयते करीमा नाज़िल हुई (यानी सूरह बक़रह, आयत न. 144)
 
आग दस्तर ख़्वान को नहीं जला सकी
हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु के घर सहाबए किराम की दावत थी। एक कपड़े का दस्तरख्वान लाया गया जो बहुत मैला था। आप ने वह दस्तर- ख़्वान भड़कते हुए तन्नूर में डाल दिया। सारा मैल जल गया लेकिन दस्तर- ख़्वान के कपड़े के तार भी गर्म न हुए। साथियों ने पूछाः ऐ सहाबिए रसूल, आग में कपड़ा क्यों न जला और इतना साफ कैसे हो गया? हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमायाः एक दिन हुजूरे अकदस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस दस्तर ख़्वान से अपना हाथ और मुंह पोंछा था, उस दिन से आग इसे नहीं जलाती । ( मसनवी शरीफ)
 
ज़मज़म से भी अफ़ज़ल पानी
उलमा का कहना है कि दुनिया व आखि़रत के तमाम पानियों से अफज़ल और मुकद्दस वह पानी है जो हुजूरे अकदस सल्ललाहु अलैहि वसल्लम की उंगलियों से निकला, यहाँ तक कि यह पानी ज़मज़म से भी अफज़ल है। ( तफसीरे नईमी)
सरकार के कदमों की बरकत से फसल दो गुना 
 एक बार हुजूर शफीउल मुज़निबीन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रतअनस रज़ियल्लाहु अन्हु के बाग़ में तशरीफ ले गए। सरकार के कदमों की बरकत से उनका बाग़ साल में दो बार फसल देने लगा। (बुखारी शरीफ) 
 
4 शफ़ाअते मुस्तफ़ा पर ईमान 
 
रसूल ﷺ पर ईमान लाने का एक मतलब ये भी है कि ये अक़ीदा रखा जाए कि नबी ﷺ उम्मतियों के लिए शफ़ाअत करेंगे लेकिन जिसका अक़ीदा ये हो कि नबी किसी का शफ़ाअत नहीं करेंगे वैसा शख्स बदअक़ीदा है ऐसे लोग शफ़ाते मुस्तफ़ा से महरूम रहेंगे जिसका अंजाम ये होगा कि उसे जहन्नम में रहना पड़ेगा।
 
हदीस 1 (तर्जमा) : मेरी शफ़ाअत रोज़े कयामत हक है जो इस पर ईमान न लाएगा इस के काबिल न होगा। (40 हदीसे शफ़ाअत)
हदीस 2 (तर्जमा) : मेरी शफाअत मेरी उम्मत में उनके लिए है जो कबीरा गुनाह वाले हैं।(40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 13)
हदीस 3ः (तर्जमा) अबूबक्र अहमद इब्ने अली बग़दादी हज़रते अबू दाऊद रदियल्लाहु तआला अन्हु से रावी हुज़र शफीउल मुज्नेबीन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं :- तर्जमा : मेरी शफअत मेरे गुनाहगार उम्मतियों के लिए है।(40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 13)
अबू दरदा रदियल्लाहु तआला अन्हु ने अर्ज की अगरचे जानी हो अगरचे चोर हो तब फ़रमाया अगरचे जानी हो अगरचे चोर हो बरखिलाफ ख़्वाहिशे अबू दरदा के (यानी जैसा कि अबू दरदा सोच रहे हैं वैसा नहीं बल्कि चोरों और जिनाकारों तक के लिए हुजूर की शफाअत है) (40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 13)
हदीस (तर्जमा)ः  हज़रते अनस रदियल्लाहु तआला अन्हु से रावी हुज़ूर शफीउल मुज्नेबीन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं :-  रू-ए-ज़मीन पर जितने पेड़ पत्थर ढेले हैं मैं कयामत में उन सबसे ज्यादा आदमियों की शफअत फरआऊँगा । (40 हदीसे शफ़ाअत, पेज 14)
 
5 खत्मे नबूवत पर ईमान 
 
तमाम उम्मतियों पर हक़ है कि अल्लाह व रसूल के फ़रमान के मुताबिक नबी करीम को आख़री नबी जाने और खत्मे नबूवत को हक़ माने यानी इसके बाद कोई नबी नहीं आ सकता।
हुजूरे अकदस ﷺ ने फरमायाः अल्लाह तआला ने अपने पास लिख रखा है कि मैं ख़ातिमुल अम्बिया हूँ और मेरा ख़ातिमुन्बीय्यीन होना खुदा ने उस वक़्त लिख दिया था जब आदम अलैहिस्सलाम मिट्टी और पानी की हालत में थे और में तुम को अपनी इब्तिदाई हालत के बारे में ख़बर देता हूँ। मैं इब्राहीम अलैहिस्सलाम की दुआ हूँ और अपनी मां का वह ख़्वाब हूँ जो मेरी पैदाइश के वक्त उन्हों ने देखा था कि उनके अन्दर से एक नूर निकला था जिससे शाम के महल जगमगा उठे थे। (क्या आप जानते है, पेज 22)
 
6 हयाते नबी ﷺ बादे वफात पर ईमान
 
तमाम अंबिया किराम अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम की हयात, हकीकी हिस्सी दुनियवी है।
सही हदीस में है बेशक अल्लाह तआला ने ज़मीन पर अंबिया अलैहिस्सलातु वस्सलाम के ज़िस्म को खाना हराम फरमा दिया है, तो अल्लाह के नवी ज़िन्दा है, रिज़्क दिए जाते है । (निसाई )
 
नबी ﷺ जिन्दा है
दूसरी सही हदीस में है अंबिया सब जिन्दा हैं अपनी कब्रों में नमाजें पढ़ते हैं। (मिश्कात) 
 
मसला हयाते अंबिया
अंबिया अलैहिस्सलातु वस्सलाम हाले हयात व हाले वफात में हमेशा हर वक्त तैय्यिब व ताहिर हैं। अंबिया किराम अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम की मौत यानी उनके अज्सामे तैय्यबा से अरवाहे ताहिरा का जुदा होना सिर्फ एक आन के लिए होता है फिर वैसे ही जिन्दा हो जाते हैं जैसे हाले हयाते जाहिरी में थे जिस्म व रूह से मअन व लिहाज़ा उनका तरका नहीं बटता न उनके बाद उनकी अज़्वाज से निकाह जाइज़ (फ़ैज़ाने आला हज़रत, 61 )
अंबिया किराम अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम को मुर्दा कहना हराम, बल्कि मआजल्लाह बतौर तौहीन हो तो सरीह कुछ है, अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ने शोहदा को मुर्दा कहने से मना फरमाया. अंबिया अलैहिस्सलातु वस्सलाम की हयात उन से बदरजहा जाइद है शहीद की हयात अहकामे दुनिया में नहीं उसका तरका बढ़ेगा. उसकी बीबी इद्दत के बाद निकाह कर सकेगी, बखिलाफ अंबिया किराम अलैहिस्सलातु वस्सलाम ( हाशिया फतावा रज्वीया जिल्द अव्वल, सफा, 611)
 
7 हाज़िर व नाज़िर पर ईमान
 
 शरीअत  में हाज़िर नाज़िर के माना हैं। सारी दुनिया को देखना और दूर व नज़दीक की आवाज़ों को सुनना । या थोड़े से वक़्त में दुनिया भर की सैर कर लेना और एक आन में रूहानी या जिस्म मिसाली के साथ सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी पर मदद के लिए पहुंच जाना ।(बुज़ुर्गों के अक़ाइद, पेज 300)
अल्लाह के महबूब बन्दों का हाज़िर व नाज़िर होना हक है। हुजूर सय्यदे आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और बड़े-बड़े उलमा-ए-किराम व बुजुर्गाने दीन का यही अकीदा है।  सुबूत मुलाहजा हो । 
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु तआला अन्हुमा से रवायत है। उन्होंने कहा कि रसूले अकरम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया । अल्लाह ने मेरे लिए दुनिया के पर्दे उठा दिए हैं। तो मैं दुनिया को और जो कुछ भी उस में कयामत तक होने वाला है सब को ऐसा देखता हूँ जैसे कि अपनी इस हथेली को। (जरकानी अलल मवाहिब जि0ः 7 पे0ः 204 )

(2) मुहब्बते रसूल ﷺ

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(3) ताज़ीमे रसूल ﷺ

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(4) इताअते रसूल ﷺ

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(5) इत्तिबा-ए-सुन्नते रसूल ﷺ

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(6) दुरूद शरीफ की कसरत

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(7) मदहे रसूल ﷺ

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(8) कब्रे अनवर की ज़ियारत।

क़ब्रे अनवर की ज़ियारत
हुज़ूरे अक़दस के रोज़ा-ए-मुक़द्दसा की ज़ियारत सुन्नते मुअक्कदा क़रीब (वाजिब) यानी ज़रूरी है। मुसलमानों पर नबी ﷺ के हुक़ूक में से एक हक़ ये भी है कि हुज़ूरे अक़दस के रोज़ा-ए-मुक़द्दसा की ज़ियारत की जाए। मदीना मुनव्वरा में सरवरे दो आलम सल्लल्लाहु त’आ़ला अलैहि व सल्लम की आख़िरी आराम गाह है और यही मस्जिदे नबवी है, यही वोह मक़ाम है जहाँ आप हिजरत के बाद जलवा अफ़रोज़ हुए और तादमे आख़िर रहे। इसलिए अल्लाह त’आला के मुक़द्दस घर ख़ाना ए काबा में हज या उमरा की सआदत हासिल करने के बाद यहाँ की हाज़िरी दीनो दुनिया की फ़लाह व सआदत का मुजिब है। और क़ियामत के रोज़ रसूल ﷺ की शफाअत का ज़रीआ बनेगी। इसलिए क़ब्रे अनवर की ज़ियारत बहुत ज़रूरी है। ज़ियारत के बग़ैर वापस लौट आना सख़्त महरूमी और बद बख़्ती है। क़ुरआने पाक में बारगाहे रिसालत की हाज़िरी को गुनाहों की बख़्शिश व मग़फिरत का ज़रीआ क़रार दिया गया है।

क़ब्रे अनवर की ज़ियारत हर मुसलमान पर हक़ है
हदीस : (तर्जुमा) हज़रत अनस रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि रसूल ﷺ हिजरत कर के जब मक्का शरीफ से तशरीफ लाये तो वहाँ की हर चीज़ पर अंधेरा छा गया और जब मदीना तय्यबा पहुँचे तो वहाँ की हर चीज़ रौशन हो गई हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मदीना मेरा घर है और उसी में मेरी क़ब्र हो गई और हर मुसलमान पर हक़ है कि उसकी ज़ियारत करे। (सीरते मुस्तफ़ा, अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी )

रोज़ा-ए-मुक़द्दसा की ज़ियारत का हुक़्म*
अल्लाह त’आला ने क़ुरआन मजीद में इर्शाद फरमाया किः- (तर्जुमा)
“और अगर ये लोग जिस वक़्त कि अपनी जानों पर ज़ुल्म करते हैं आप के पास आ जाते और ख़ुदा से बख़्शिश मांगते और रसूल ﷺ उनके लिए बख़्शिश की दुआ फरमाते, तो ये लोग ख़ुदा को बहुत ज़्यादा बख़्शने वाला मेहरबान पाते”।
इस आयत में गुनाहगारों के गुनाह की बख्शिश के लिए अर्हमुराहिमीन ने तीन शर्तें लगाई हैं। पहले दरबारे रसूल ﷺ में हाज़िरी, दूसरे इस्तिग़फार, तीसरा रसूल ﷺ की दुआ ए मग़फिरत। येह हुक्म हुज़ूर की ज़ाहिरी दुनियावी ज़िंदगी ही तक महदूद नहीं।
बल्कि रोज़ा-ए- अक़दस में हाज़िरी भी यक़ीनन दरबारे रसूल ﷺ ही में हाज़िरी है। इसीलिए उलमा-ए-किराम ने खुलकर फ़रमा दिया है कि हुज़ूर के दरबार का फ़ैज़ आपकी वफ़ाते अक़दस से ख़त्म नहीं हुआ है। इसलिए जो गुनहगार क़ब्रे अनवर के पास हाज़िर हो जाए और वहाँ ख़ुदा से बख़्शिश की दुआ करे।
चूँकि हुज़ूर तो अपनी क़ब्रे अनवर में अपनी उम्मत के लिए इस्तिग़फार फ़रमाते ही रहते हैं इसलिए उस गुनहगार के लिए मग़फिरत की तीनों शर्तें पा ली गईं इसलिए इन्शाअल्लाह त’आला उसकी ज़रूर मग़फिरत हो जाएगी। यही वजह है कि चारों मज़ाहिब के उलमा-ए-किराम ने हज व ज़ियारत के बारे में लिखी हुई किताबों में यह तहरीर फ़रमाया है कि जो शख्स भी रोज़ा-ए-मुनव्वरा पर हाज़िरी दे उसके लिए मुस्तहब है कि इस आयत को पढ़े। फिर ख़ुदा से अपनी बख़्शिश की दुआ मांगे।
ऊपर की आयते मुबारका के अलावा बहुत सी हदीसें भी रोज़ा-ए- मुनव्वरा की ज़ियारत के फज़ाइल में वारिद हुई हैं जिनका अल्लामा समहूदी ने अपनी किताब ’वफ़ाउल वफ़ा’ और दूसरे मुस्तनद सलफ़े
सालिहीन उलमा-ए-दीन ने अपनी-अपनी किताबों में नक़ल फरमाया है। हम यहाँ मिसाल के तौर पर सिर्फ़ चंद अहादीस नक़ल करते हैं।

मस्जिदे नबवी में दाख़िल :
मस्जिदे नबवी में दाख़िल होते वक़्त पहला दाहिना क़दम रखें और मस्जिदे नबवी में दाख़िल होते वक्त यह दुआ पढ़े: (तर्जुमा) ऐ अल्लाह ! दुरूद भेज हमारे सरदार मुहम्मद मुस्तफा स़ल्लल्लाहु त’आला अलैहि वसल्लम और उनकी आल पर ऐ अल्लाह ! मेरे गुनाहों को बख़्श दे और मेरे लिए अपनी रहमत के दरवाज़े खोल दे ऐ अल्लाह आज के मुझे तेरी तरफ मुतवज्जह होने वालो में सब से ज़्यादा मुतवज्जह बना ले। तेरा क़ुर्ब हासिल करने वालो में सब से ज़्यादा क़रीब बना ले और ज़्यादा फाइज़ुलमराम कर उन्ही से जिन्हो ने तुझ से दुआ की और अपनी मुरादें मांगी“ (सुन्नी फ़ज़ाइले आमाल, पेज 379)

गोया मेरी ही ज़ाहिरी ज़ियारत की
हदीस 1: (तर्जुमा) : हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि नबी ﷺ ने फ़रमाया कि जिस ने मेरी हयाते ज़ाहिरी के बाद हज किया और मेरी क़ब्र की ज़ियारत को आया तो गोया उसने मेरी ज़ाहिरी हयात में मेरी ज़ियारत की (बैहक़ी शो’बुल ईमान)

मेरी शिफाअत ज़रूरी हो गई
हदीस 2: (तर्जुमा) : हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि नबी ﷺ ने फ़रमाया कि जिस शख़्स ने मेरी क़ब्र की ज़ियारत की उसके लिए मेरी शिफाअत ज़रूरी हो गई। (दारे कुतनी)

वोह क़ियामत में मेरे पड़ोसी
हदीस 3: (तर्जुमा) आले ख़िताब के एक आदमी की रिवायत है कि रसूल ﷺ ने फ़रमाया कि जो शख़्स इरादा कर के मेरी ज़ियारत करे वोह क़ियामत में मेरे पड़ोस में होगा और जो शख़्स मदीना में क़ियाम करे और वहाँ की तंगी पर सब्र करे मैं उसके लिए क़ियामत में गवाह और सिफारिशी हूँगा। और जो हरमे मक्का या हरमे मदीना में मर जाए वोह क़ियामत में अमन वालो में उठेगा। (बैहक़ी शो’बुल ईमान)


दो मबरूर हज्जों का सवाब
हदीस 5: (तर्जुमा) हज़रत इब्ने अब्बास रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि जो शख़्स हज्ज के लिए मक्का मुकर्रमा जाए उसके बाद मेरी मस्जिद में आए उस के लिए दो मबरूर हज्जों का सवाब होगा। (अल इतहाफ़)

क़ब्रे अनवर के पास दरूद पढ़ना
हज़रत अबू हुरैरा रदीअल्लाहु अन्हु से रिवायात है कि जो शख़्स भी मेरी क़ब्र के पास आ कर मुझ पर दुरूद और सलाम पेश करे तो अल्लाह त’आला मेरी रूह तक पहुँचा देता है उसके सलाम का जवाब देता हूँ। (सुन्नी फ़ज़ाइले आमाल, पेज 377)

क़ब्रे अनवर के पास से दरूद का जवाब
हज़रत अबू हुरैरा रदीअल्लाहु त’आला अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु त’आला अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि जो शख़्स मेरी क़ब्र के पास खड़ा हो कर मुझ पर दुरूद पढ़ता है मैं उसको ख़ुद सुनता हूँ और जो किसी और जगह दुरूद पढ़ता है तो उसकी दुनिया और आख़िरत की ज़रूरतें पूरी की जाती हैं और मैं क़ियामत के दिन उसका गवाह और उस की सिफारिशी हूँगा।“ (बैहक़ी)

रहमत का नुज़ूल और हाजत पूरी होना
इब्ने अबी फ़दीस का बयान है कि जो शख़्स हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु त’आला अलैहि वसल्लम की क़ब्रे मुबारक के पास खड़े हो कर यह आयत पढ़े। 3) उसके बाद 70 मर्तबा सल्लल्लाहु अलैका या मुहम्मद कहे तो एक फिरिश्ता कहता है कि ऐ शख्स अल्लाह जल्ल शानोहु तुझ पर रहमत नाज़िल करता है और उसकी हर हाजत पूरी कर दी जाती है“ (बैहकी)

इसीलिए सहाबा ए किराम के मुक़द्दस ज़माने से लेकर आज तक तमाम दुनिया के मुसलमान क़ब्रे मुनव्वर की ज़ियारत करते और आपकी मुक़द्दस बारगाह में वसीला और मदद करते रहे हैं इन्शाअल्लाह त’आला क़ियामत तक यह मुबारक सिलसिला जारी रहेगा।

एक देहाती का वाक़िआ
हज़रते अमीरुल मोमिनीन अली मुर्तजा रदीअल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि वफ़ाते अक़दस के तीन दिन बाद एक देहाती मुसलमान आया। क़ब्रे अनवर पर गिर कर लिपट गया। फिर कुछ मिट्टी अपने सर पर डाल कर यूँ अर्ज़ करने लगा कि ’या रसूल ﷺ आपने जो कुछ फ़रमाया हम उस पर ईमान लाए हैं। अल्लाह त’आला ने आप पर क़ुरआन नाज़िल फरमाया जिसमें उसने इरशाद फ़रमाया कि (तर्जुमा :अगर ये लोग जिस वक़्त कि अपनी जानों पर ज़ुल्म करते हैं आप के पास आ जाते और ख़ुदा से बख़्शिश मांगते और रसूल ﷺ उनके लिए बख़्शिश की दुआ फरमाते, तो ये लोग ख़ुदा को बहुत ज़्यादा बख़्शने वाला मेहरबान पाते।) तो या रसूल ﷺ मैंने अपनी जान पर (गुनाह करके) ज़ुल्म किया है इसलिए मैं आपके पास आया हूं ताकि आप मेरे हक़ में मग़फिरत की दुआ फरमाएँ। देहाती की इस फरियाद के जवाब में क़ब्रे अनवर से आवाज़ आई कि ऐ देहाती तू बख़्श दिया गया“ (वफ़ा उल वफ़ा, जिल्द-2, सफ़ा 412)

हुज़ूर अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी अलैहिर्रहमह सीरते मुस्तफ़ा किताब में लिखते है
ज़रूरी तंबीहः नाज़िरीने किराम येह सुन कर हैरान होंगे कि मैंने अपनी आँखों से देखा है कि गुंबदे ख़ज़रा के अन्दर मवाजले अक़दस और उसके क़रीब मस्जिदे नबवी की दीवारों पर क़ब्रे मुनव्वरा की ज़ियारत की फज़ीलतों के बारे में जो हदीसें कुन्दा की हुई थीं नज्दी हुकूमत ने इन हदीसों पर मसाला लगवाकर उनको मिटाने की कोशिश की है। अगरचे अब भी उसके कुछ हुरूफ़ ज़ाहिर हैं। इस तरह मस्जिदे नबवी के गुंबदों के अन्दरूनी हिस्से में क़सीद-ए-बुर्दा शरीफ के जिन अशआर में तवस्सुल और इस्तिग़ासा के मज़ामीन थे, उन सबको मिटा दिया गया है। बाकी अशआर बाकी गुंबद पर उस वक्त तक बाकी थे। मैंने जो कुछ देखा है वह जुलाई 1959 ईसवी का वाक़िआ है। इसके बाद वहाँ क्या तब्दीली हुई? उसका हाल नए हुज्जाजे किराम से पूछना चाहिए। (सीरते मुस्तफ़ा, पेज 534 हिदी)

(1) ईमान बिरर्रसूल ﷺ
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