इबादत की हक़ीक़त

ज़िन्दगी इबादत के लिए है
अल्लाह फरमाता है : मैंने जिन्न और इंसान को इतने ही के लिये बनाए कि मेरी बन्दगी (इबादत) करें । (कंजुल ईमान, सुरह जरियात, आयत न. 56 )
हुक़ूक अदा करना ही इबादत है
हुक़ूक अदा करने का नाम ही इबादत है जो दो किस्म के है- 1. हुक़ूक़ुल्लाह और 2. हुक़ूक़ूलइबाद
1. हुक़ूक़ुल्लाह (अल्लाह का हक़) : अल्लाह का दिया दुआ हर वो चीज जो बंदों के पास है जैसे इल्म, माल, सेहत, ताकत, जिस्म और जान को अल्लाह के लिए खर्च करना हुक़ूक़ुल्लाह कहलाता है।
इबादत का मतलब
जानना चाहिए कि हुक़ूक़ के 2 अकसाम है हुक़ूकुल्लाह और हुक़ूक़ूल इबाद। हक़ का जामा (बहुवचन) को हुक़ूक कहते है इसका मतलब किसी के एहसान का बदले में उसका बदला देना है। यानी कोई कुछ दिया तो उसके बदले में उसके लिए भी कुर्बानियां दिया जाना चाहिए । अल्लाह ने इंसानों को बनाया और जिस्मो जान, जिस्मानी अंग अता किया और उसे जिंदा रहने के लिए रिज़्क़ और तरह तरह की सहूलियत और नेएमते अता किया इसके बदले में अल्लाह बदनी अमल और माली क़ुर्बानी देने का हुक़्म दिया। हुक़ूकुल्लाह यानी बंदों के जिम्मे अल्लाह का हक़ है जिसे निभाने (अदायगी) को फ़र्ज़ करार दिया गया है जो इस फ़र्ज को ना माने वो काफ़िर और जो इस फ़र्ज़ को अदा न करे वो फ़ासिक फ़ाज़ीर है। दोनों हुक़ूक अदा करना ईमान की अलामत है और यही फरमाबरदारी और वफादारी है। जैसे अल्लाह को पहचानना, अल्लाह को एक मानना, अल्लाह का फरमान मानना, अल्लाह की जात व सिफ़ात पर ईमान लाना। अल्लाह की जात पर ईमान लाने का मतलब अल्लाह एक है और वही इबादत के लायक है। लिहाजा दिल में उसी के लिए मुहब्बत, खौफ़, इख़लास, तवक़्क़ल होना चाहिए और ज़िस्म व ज़िस्मनी आज़ा से उसी की इताअत (फरमाबरदारी) नमाज़, रोज़ा, हज़्ज़, उसी के राह में उसकी दी हुवी नेअमतों को खर्च करना चाहिये और ज़बान से उसका ही ज़िक्र, शुक्र, और तारीफ बयां करना चाहिए ।
किसी बातिल मख़लूख जैसे नफ़्स अम्मारा और नफ़्सनी इंसान, शैतान और शैतान वालों, दुनिया और दुनियादारों की इताअत और मुवाफ़िक़त नहीं करना चाहिए इसी नफ़ी का दर्श हमे कालिमा तैयबा यानी ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुरर्रसूलूल्लाह” तर्जुमा (नहीं कोई मअबूद (जिसकी इताअत की जाए) सिवाए अल्लाह के और मुहम्मद मुस्तफ़ा अल्लाह के रसूल (यानी अल्लाह के तरफ से आसमानी किताब लाने वाले और शरीयत व सुन्नत बताने वाले) है।
हुक़ूक़ूल इबाद (बंदों का हक़) – अल्लाह के फ़रमान के मुताबिक बंदों और मख़लूख के साथ वैसा ही सुलूक और मामला करना चाहिए जैसा कि करने का हुक़्म और हक़ है। इसी का नाम हुक़ूक़ूल इबाद है। बंदों के मुख़्तलिफ़ दरजात और अकसाम के मुताबिक मुख्तलिफ हुक़ूक है। जैसे अम्बिया का हुक़ूक़ उनके उम्मतियो पर, औलिया अल्लाह का हुक़ूक़ू उनके गुलामो पर, पीरो मुर्शिद का हुक़ूक़ उनके मुरीदों पर, मोनिनीन का आपसी हुक़ूक़ मोनिनीन पर, वालदैन का हुक़ूक़ उनके औलादों पर, औलाद का हुक़ूक उनके वालदैन पर, रिस्तेदारों का आपसी हुक़ूक़ रिस्तेदारों पर, इसी तरह जो जिससे जैसा ताअल्लुक़ जोड़ेगा उंस पर उसका हुक़ूक़ की आदायगी का जिम्मा लाज़िम हो जाएगा। तमाम हक़ वालो से अल्लाह की रज़ा के लिए मुहब्बत, निस्बत, खीदमत, सखावत सोहबत का मामला रखना चाहिए यही ईमान और नेक अमल है और तमाम बातिल मख़लूखों से अल्लाह की रज़ा के लिए दिली और ज़िस्मनी अदावत, नफ़रत, मुखलाफ़त का मामला रखना चाहिए और यही रब की इताअत व फरमाबरदारी है जो ऐने ईमान व नेक अमल है।